27 नवंबर 2014

मैं और वह

______________कविता-श्रृंखला
[13]
हम एक तस्वीर का निगेटिव बनकर आए थे दुनिया में
वह फोटोग्राफर कहां होगा जिसने हमारा पोज़ीटिव निकाला था :
मैंने उसकी स्मृति में लौटते हुए पूछा
फोटोग्राफर को छोड़ो, उस पोज़ीटिव को ढूढ़ो : मेरी विस्मृति को जगाते हुए उसने कहा
तो क्या हम आज भी एक निगेटिव हैं?
शायद: हम दोनों का एक ही जवाब था
तब तो मस्ट है उस फोटोग्राफर को ढूंढ़ना : हमने एक-दूसरे से एक साथ कहा
हमारा एक साथ कहना हमें हैरान कर गया था
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[दिलीप शाक्य ]

26 नवंबर 2014

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[12]
मैं किसी काम में बिज़ी था
जब मैंने उससे कहा : कैच यू लेटर
यू कान्ट कैच मी : उसने कहा
कैच मी इफ यू कैन : मैंने सुना
काम अधूरा छोड़कर
मैं उसकी तलाश मैं निकल पड़ा
उसने अपना चेहरा किसी फूल से बदल लिया था
बसंत के विदा लेने से पहले
अब मुझे उसको पहचानना था
_________________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[11]
म्यूज़िक लाइब्रेरी में एक पुराना रिकॉर्ड तलाशते हुए उसने कहा :
सब थे यहां, जब तुम नहीं थे
जब तुम थे, कोई नहीं था दूर-दूर तक
मैंने कहा : अब ?
अब सब हैं यहां, और तुम भी हो : उसने कहा
मैंने कहा : कोई नहीं है यहां, मैं भी नहीं, सिर्फ तुम हो
क्या फर्क पड़ता है अगर मैं हूं,
तुम तो नहीं हो ना :
पुराने रिकार्ड पर ग्रामोफोन की नीडल रखते हुए उसने कहा
हमारे कहने और सुनने के बीच घूमती हुई ख़ामोशी में
हम कहीं तो थे : मैंने सोचा
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[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[10]
मैं पूरब से आया और वह पश्चिम से..फिर हम दोनों एक बाज़ार में पहुंचे
मैंने घोड़े की नाल खरीदी और उसने घोड़े के पंख
यह युद्ध का समय नहीं : मैंने उससे कहा
यह शांति का भी समय नहीं : उसने प्रतिवाद किया
घोड़ा कहां मिलेगा : तब मैंने पूछा
जहां प्रेम मिलेगा : तब उसने कहा
क्या यह प्रेम का समय है : मैंने उसकी आंखों के काजल का अर्थ समझते हुए पूछा
हां, यह प्रेम का समय है : उसने अपनी आंखों के काजल का अर्थ समझाते हुए कहा
हम समुद्र के बहुत नज़दीक थे और घोड़े के हिनहिनाने की आवाज़
बहुत साफ सुनायी दे रही थी
मैंने देखा उसके सफेद स्कार्फ में पीछे छूटते हुए बाज़ार के रंग
किसी प्रिज़्म की मानिंद चमक रहे थे
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[दिलीप शाक्य ]

21 नवंबर 2014

मैं और वह


------------------कविता-श्रृंखला
[9]
नेताजी के भाषण में पार्टी की टोपी थी, पार्टी का माइक था और मुंह भी शायद पार्टी का ही था
मैंने उससे पूछा: नेताजी का क्या है ?
कुछ नहीं, सब जनता का है : बालों से हेयर पिन निकालते हुए उसने कहा
बीच में पार्टी कहां से आयी फिर : मैंने फिर कहा
‘पार्टीशन’ शब्द पर ज़ोर देत हुए उसने पूछा : ‘हिन्द स्वराज’ नहीं पढ़ा क्या ?
हां पढ़ा तो है : मैंने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा
तो फिर उठो और जनता से कहो कि,
हमें किसी वकील की ज़रूरत नहीं : लोकतंत्र की हर अदालत को ख़ारिज़ करते हुए उसने कहा
क्या उसने मुझसे कुछ ग़लत कहा : मैंने अपने आप से पूछा
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[दिलीप शाक्य ]

20 नवंबर 2014

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[8]
शहर के जुलूस में बहुत दूर तक चलने के बाद हमने अपने क़दम
एक खंडहर की ओर मोड़ दिए
शहर और खंडहर के बीच की खाली जगह को
एक नदी की तरह देखते हुए मैंने उससे पूछा : जाएं तो जाएं कहां ?
टैक्सी ड्राइवर, देवानंद, 1954...नाइस सोंग इट इज : जवाब में उसने कहा
मैंने उसकी आंखों में तैरती हुई उम्मीद को
एक नाव की तरह देखा
और खंडहर की पुरानी तहज़ीब में लौटते हुए पूछा : लॉन्ग ड्राइव ?
मेरी हथेली को अपनी हथेली से गर्माते हुए उसने कहा : व्हाइ नॉट ?
_________________
[दिलीप शाक्य ]

18 नवंबर 2014

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[7]
शहर में जब सियासत के समीकरण बिगड़ रहे थे
और एक समुदाय का उम्मीदवार दूसरे समुदाय के उम्मीदवार की जड़े खोद रहा था
मैंने उससे कहा : चलो एक पेड़ उगाएं
उसे संशय था : फूल खिलेंगे?
मैंने कहा : मौसम तो पतझड़ का है...फिर भी लैट्स ट्राई

उसने पूछा : अपनी मुस्कुराहट बो दूं ?
मैंने अपनी कुदाल उठाई और पिछले मौसम में पूरी तरह जल चुके चिनार के वृक्षों को याद करते हुए कहा : हां, मग़र होंटो की लिपिस्टिक तो छुटा दो..
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[दिलीप शाक्य ]

17 नवंबर 2014

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[6]
सौरमंडल की तमाम कक्षाओं से बाहर निकलकर
मैंने उसे देखा और कहा : प्यार
डज़ इट एक्जि़्स्ट : उसने पूछा
मैंने कहा: एटलीस्ट यहां तो..
उसने सितारों की ओर देखा और एक गैलेक्सी को आवाज़ दी
मैंने पूछा : एक और मृत्यु?
नहीं, एक और जन्म : उसने कहा
मैंने ब्रह्मांड की सबसे प्राचीन घड़ी में देखा
किसी दिल के धड़कने का वक़्त हो चला था..
_______________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[5]
नवम्बर की ऐसी ही रात थी, जब ज़मीन से आसमान की ओर उठ रहे
बुगनबेलिया के बैंगनी पर्दे पर उसकी हंसी 
सितारों-सी बिखर गयी थी
मैंने उससे कहा: देखो, चांद से कितना रू-ब-रू है तुम्हारा चेहरा
तुम्हारा चांद तुम्हें ही मुबारक़ हो,
मुझे तो सूर्य का इन्तज़ार है: उसने चांद से चिढ़कर कहा
मैंने कहा: सूर्य में बड़े ब्लैकहोल्स हैं आजकल
तुम्हारा चांद कौन-सा बेदाग है: उसने कहा
दाग अच्छे हैं और मेरा मन एक साबुन की टिकिया है
मैंने हंसकर कहा और उसे गले लगा लिया
तब भी मुझे सूर्य ही कहो...मैं तुम्हारी सुब्ह हूं रात नहीं
उसे यही कहना था उसने यही कहा
मुझे भी किसी सुब्ह का इन्तज़ार नहीं था
मैं तो रात के समुद्र का नाविक था....
_______________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[4]
उसने मुझे अपने आंसुओं में रेत के महीन कणों की तरह छुपा रखा था
आंसुओं के नदी बनने से पहले
मैंने उससे कहा था : ड्रॉप दिस आइडिया..
मैं तुम्हारी पलकों पर ओस का फूल बनकर बिखरना चाहता हूं
नो, इट्स ए बैड आइडिया..
मैं तो समुद्र में विलीन होने तक तुम्हारे साथ-साथ चलना चाहती हूं :
उसने मुझे लाजवाब करते हुए कहा
तब से वह नदी है और मैं रेत
प्यारे सैलानियो, हमारे सीमांतों को गंदला न करें
अपनी लापरवाह आज़ादियों से...
_______________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[3]
मैं चांद के बहुत करीब खड़ा था
जब उसने सितारों की भरी महफ़िल में खोल दिए 
अपने गेसुओं के सभी ख़म एकाएक
मैंने चांद से कहा: देखो तो, आसमान में कितनी दूर तक उड़ रहा है
तुम्हारे मन के सूरजमुखी का भीना-भीना पराग
तुम्हें कुछ ख़बर भी है
चांद ने मुझसे कहा : अहा, इसे तो ब्रेकिंग न्यूज़ होना चाहिए
चलो कोई न्यूज़ चैनल लगाओ
तुम भी, कहां डिस्कवरी चैनल पर रुके हुए हो..
_____________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[2]
प्रयोगशाला में बहुत सन्नाटा था, जब मैंने उससे कहा : हाइड्रोजन
वह मुस्कुराई और उसने कहा : ऑक्सीजन
हाइड्रोजन : मैंने एक खाली वीकर उठाया और फिर उसी संजीदगी से कहा
उसके दोबारा मुस्कुराने से पहले ही पानी का जन्म हो चुका था
मैंने कहा: ताजमहल
उसने कहा: यमुना नदी
और हम प्रयोगशाला से बाहर आ गए
_____________
[दिलीप शाक्य ]

मैं और वह

------------------कविता-श्रृंखला
[1]
मैंने उससे कहा : तुम्हारी आंखें बहुत ख़ूबसूरत हैं
उसने मुझसे कहा : आसमान का रंग कितना साफ है
मैंने कहा : समुन्दर को किश्तियों में भर लें
उसने कहा : किश्तियों के डूब जाने का डर है
पार उतर के जाना भी कहां है : मैंने कहा
डूबने का बड़ा शौक़ है : उसने कहा
मैंने फिर कहा : तुम्हारी आंखें बहुत ख़ूबसूरत हैं
उसने फिर कहा : आसमान का रंग कितना साफ है
______________
[दिलीप शाक्य ]

16 नवंबर 2014

एक पीला त्रिकोण

आसमान में एक पीले त्रिकोण की तरह 
रुका हुआ हूं मैं 
बरसों से
धूप में जलता हूं तो बारिश मुझे
नहला देती है
अंधेरे से डरता हूं तो चांदनी मुझे
बहला देती है
अपनी ही दिशाओं का बंदी मैं
किसी स्थगित यात्रा के कटे हुए वृत्तांत-सा
टंगा हूं अनन्त में
मेरी भुजाओं में अलग होने की ताक़त तो है
मग़र एक अदृश्य वृत्त है उनके शीर्ष पर
निरंतर घूमता हुआ
बंधा हूं मैं उसी के तिलिस्म से
बेबस
धरती की हरीतिमा
और आकाश की नीलिमा के बीच जलते हुए
सूर्य से कहो
कि किसी बर्फीले प्रदेश में जाकर
ख़ुदकुशी कर ले
अगर नहीं पिघला सकता
मेरी भुजाओं के कसकते हुए संधि-स्थल
_____________
[दिलीप शाक्य]

ग़ज़ल

गो जाग रहे हैं, हमें सोने का गुमां है
फिर एक नए ख़्वाब में खोने का गुमां है
है नींद में झरने सी हंसी तेरे लबों की
सुर्ख़ी को लहर बन के चमकने का गुमां है
तुम ढ़ूढ़ रहे हो हमें जिस शहर में आकर
हमको भी उसी शहर में खोने का गुमां है
सीने को दबाती हुई मदहोश हवाएं
इनमें तेरी ज़ुल्फ़ों के बिख़रने का गुमां है
इस राह पे हम साथ हैं बरसों से मुसल्सल
मिलने का ग़ुमां है न बिछड़ने का गुमां है
इस बाग़ में ऐ जान-ए-अदा ये भी बहुत है
ख़ामोश परिन्दों को चहकने का गुमां है
है शेर-ओ-सुख़न ख़्वाब में चलने के सिवा क्या
सुनने का उन्हें है हमें कहने का गुमां है 
_____________
 दिलीप शाक्य

नीम की पत्तियां और हवा

नीम के दरख़्त की
पत्ती-पत्ती पर फिसलती हवा ने
उसके हरेपन को 
और भी गाढ़ा कर दिया
देखो
कैसे धूप में चमक रही हैं
दरख़्त की दबी हुई खिलखिलाहटें
हवा से कहो
थोड़ी देर और ठहर जाए
अभी पूरी तरह लौटी नहीं
नीम के दरख़्त की खोई हुई मिठास
___________
दिलीप शाक्य

ग़ज़ल

आसान ज़िन्दगी की मुश्किल कहानियां हैं
मुश्किल कहानियों में दिल के बयानियां हैं
रुख़ पे तुम्हारे जैसे जु़ल्फ़ों की जालियां हैं
खुशियां शज़र में दिल के यूं आनी-जानियां है
तीर-ए-नज़र से देखो क्या हाल दिल का होवे
आंखों ने आज उनकी, खेंची कमानियां हैं
तेरी हवा चले तो उमड़े ये दिल का दरिया
ख़ामोश पानियों में, ठहरी रवानियां हैं
लो फिर जुनूं के आगे पिछड़ी ये दुनियादारी
यादों में आंधियों सी, तेरी निशानियां हैं
तेरी सुबह की ख़ातिर तैय्यार हो रही हैं
मेरे शहर में जितनी, ये रातरानियां हैं
गुलज़ार शहर-ए-दिल है दोनों की मस्तियों से
थोड़ी मोहब्बतें हैं, थोड़ी जवानियां हैं
________________
[  दिलीप शाक्य ]

1 अक्तूबर 2014

ब्रीफ़ एन्काउंटर: एक संक्षिप्त लव-अफ़ेयर [आठवीं क़िश्त]

मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी सिनेमा-स्तंभ जलसाघर  से




‘ब्रीफ़ एनकांटर’ एक ब्लैक एंड व्हाइट ब्रिटिश फ़िल्म है। 1946 में निर्मित। यह फ़िल्म डेविड लीन की निर्देशकीय प्रतिभा का अद्भुत शाहकार है। फ़िल्म की कहानी निऑल कॉवर्ड के 1936 के मशहूर नाटक ‘स्टिल लाइफ’ का ही सिनेमाई रूपांतर है। निऑल कॉवर्ड इस फ़िल्म के निर्माता भी थे। ब्रिटिश समाज में इस फ़िल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1999 में एक ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए पोल के आधर पर इस फ़िल्म को ब्रिटेन की दूसरी सबसे लोकप्रिय फ़िल्म घोषित किया गया था। 

जिस समय डेविड लीन यह फ़िल्म शूट कर रहे थे वह दूसरे विश्वयुद्ध का आख़िरी महीना था यानी कि पूरा विश्व जिस समय युद्ध की आग में जल रहा था डेविड लीन ब्रिटेन के मध्यवर्गीय समाज में सांस ले रहे दो विवाहित अजनबियों के निश्छल प्रेम की सात बेबस मुलाकातों की कथा कह रहे थे। ये सारी मुलाकातें मिलफोर्ड जंक्शन नाम के एक काल्पनिक सब-अर्बन रेलवे-स्टेशन पर घटित होती हैं। फ़िल्म की नायिका लौरा जेस्सन /[अभिनेत्री सिलिया जोन्सन] एक मध्यवर्गीय हाउस-वाइफ़ है और फ़िल्म का नायक एलेक हार्वे [अभिनेता ट्रिवर हॉवर्ड] एक कंसल्टेंट डॉक्टर है। फ़िल्म दोनों की आकस्मिक मुलाक़ात से जन्मे निश्छल प्रेम से शुरू होती है जिसे बाद में लौरा जेस्सन के अपराध-बोध की भावना एक करुण अंत में बदल देती है। कुल मिलाकर यह दो अजनबियों के मिलने और बिछड़ने की एक सुन्दर करुण प्रेम-कथा है। यह फ़िल्म ब्रिटेन के अलावा अमेरिका में भी बहुत लोकप्रिय थी सिलिया जोन्सन को सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए अकेडेमी अवार्ड से सम्मानित किया गया था। वैसे ट्रिवर हॉवर्ड ने भी एक स्मार्ट यंग डॉक्टर के रूप में अत्यंत सधा हुआ अभिनय किया है जबकि यह उनकी पहली ही फ़िल्म थी। 

चंूकि 1946 का समय ब्रिटेन में दूसरे विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों का समय है तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि पूरी फ़िल्म के परिवेश में दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी के निशान नहीं हैं। ट्रेनें समय पर चल रही हैं। यात्रियों के बीच युद्ध की चर्चाएं नहीं हैं। चॉकलेटें बिना कूपन के ख़रीदी जा रही हैं। हांलाकि नियोल कॉवर्ड के नाटक ‘स्टिल लाइफ’ का कथानक 1935 की ब्रिटिश लाइफ पर आधारित है फिर भी निर्देशक डेविड लीन ने फ़िल्म की कहानी को तीसरे दशक के उत्तरार्ध में स्थित दिखाया है। वैसे फ़िल्म की कहानी को युद्ध के प्रभाव से कितना ही बचाया गया हो लेकिन डेविड लीन ने इसे एक दुख भरी करुण प्रेम-कथा के रूप में चित्रित कर 1946 के समय के साथ जोड़ ही दिया है। 

फ़िल्म को लौरा जेस्सन के आत्मकथात्मक नैरेटिव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लौरा जेस्सन क्रॉसवर्ड पज़ल सॉल्व करते अपने पति के सामने बैठी है और डॉक्टर ऐलेक के साथ हुयी अपनी संक्षिप्त मुलाकातों को याद कर रही है ऐसा आभास देते हुए कि जैसे उन मुलाकातों की स्मृति उसकी ग़लतियों का आत्म-स्वीकार हो। ठीक किसी कन्फेसन बॉक्स की तरह। 

इसी तरह लौरा जेस्सन और एलेक की संक्षिप्त प्रेम-कहानी एक इन्टेंस दर्द से भरे रोमानी विवरणों के साथ खुलती जाती है। कहानी मिलफॅार्ड जंक्शन पर एक्सप्रेस ट्रेन के आगमन से शुरू होती है। जंक्शन से गुजरती ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर देखते हुए लॉरा जेस्सन की आंख में कोई तिनका चला आता है। वह रेल्वे-स्टेशन के रिफ्रेशमेंट रूम में आती है जहां एक अजनबी अपने रुमाल से बहुत सहजता से लौरा की आंख का तिनका निकाल देता है। यह अजनबी ही डॉक्टर एलिक है। आगे डॉक्टर एलिक और लौरा जेस्सन हर थर्सडे को रिप्रफेशमंेट रूम में मिलते हैं। 

उस समय के ब्रिटिश समाज की अन्य संभ्रांत महिलाओं की तरह लौरा जेस्सन भी हर थर्सडे अपने घर से दूर इस इस सबअर्ब टाउन की रेल-यात्रा करती है। लाइब्रेरी की किताबें वापस करते हुए, शॉपिंग करते हुए, लंच करते हुए और पिक्चर देखते हुए अपनी पसंद का एक दिन बिताती है। डाक्टर एलिक इस सबअर्ब टाउन के एक हॉस्पिटल में कंसल्टेंट डॉक्टर है जो हर थर्सडे ट्रेन से यहां आता है। लौरा जेस्सन और ऐलेक दोनों की ट्रेनें परस्पर विपरीत दिशाओं में आती-जाती हैं। आगे दोनों की इन साप्ताहिक थर्सडे मुलाकातों को निर्देशक ने रेल्वे-रिफ्रेशमेन्ट रूम में चाय पीते हुए, रेस्तरां में लंच करते हुए, थियेटर हॉल में पिक्चर देखते हुए, एक निकटस्थ गांव की ख़मोशी में टहलते हुए और ऐलेक के एक दोस्त के अपार्टमेट में मिलते हुए एक सुन्दर प्रेम-कथा के रूप में विन्यस्त किया है। 

फ़िल्म में अनेक ऐसे दृश्य हैं जो दर्शक को भीतर तक छू जाते हैं और लौरा और एलिक के लिए भावुक कर जाते हैं। फ़िल्म में लौरा की स्थिति उस समय के ब्रिटिश समाज की स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। 1940 के आस-पास जब दूसरे विश्वयुद्ध का समय था तो युद्ध की परिस्थिति को देखते हुए महिलाओं को घर से बाहर काम करने की स्वतंत्रता हासिल हो गयी थी लेकिन सामाजिक दायरों में इस स्वतंत्रता को बहुत स्वागतयोग्य नज़र से नहीं देखा जाता था। फिल्म में यह स्थिति क्रोसवर्ड सॉल्व करते लौरा के पति, अपने अपार्टमेंट में एलिक को अपमानित करता उसका देास्त, और पार्क की बेंच पर सिगरेट पीती लौरा को घर जाने की सलाह देते सिपाही के व्यक्ति-प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट की गयी है। 

डेविड लीन ने इस फ़िल्म में उस समय के समाज में संकीर्ण और मुक्त जीवन-दृष्टि के फ़र्क को साफ-साफ दिखाया है। यह बात एक स्वाभाविक प्रेम में बंधे एलिक और लौरा के दृष्टिकोणों से भी स्पष्ट होती है। एलिक लौरा के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार है लेकिन लौरा चाहते हुए भी अपने आप को एलिक के लिए तैयार नहीं कर पाती। उसका पारिवारिक और सामाजिक दायित्वबोध उसकी प्रेमानुभूति को गहरी टीस और दर्द से भर देता है। एलिक के लिए लौरा के मन में टीस और दर्द की यह अनुभूति रिफ्रेशमेंट-रूम में उनके अंतिम विदा क्षण के समय और टेªन के कंपार्टमेंट में लौरा की एक परिचित डॉली मेस्सिटर की आकस्मिक उपस्थिति और उसके निरंतर बात करते जाने के समय बहुत सा़फ-साफ़ उभर कर आती है। डॉली जब उसकी हताश स्थिति को देखते हुए कांउटर से उसके लिए ब्रांडी लेने को उठती है। ठीक उसी समय लौरा भागकर प्लेटफार्म पर जाती है और आती हुई एक्सप्रेस ट्रेन को इतने क़रीब से देखती है कि दर्शक को भ्रम होता है कि वो कहीं खुदकुशी तो नहीं करना चाहती थी। यहां अंतिम विदा के क्षण दोनों के प्रेम की उॅचाई को रेखांकित करता एक संवाद याद आ रहा है। 

एलिक: कुडन्ट आई राइट यू। जस्ट वन्स इन ए व्हाइल?
लौरा: नो एलिक प्लीज़। यू नो वी प्रोमिस्ड। 
एलिक: ओह, माई डियर। आई लव यू सो वेरी मच। आई लव यू विद ऑल माई हार्ट एंड सोल।
लौरा: आई वान्ट टू डाइ। इफ ओनली आई कुड डाइ। 
एलिक: इफ यू डाइ। यू वुड फोरगेट मी। आई वान्ट टू बी रिमेम्बर्ड।
लौरा: यस। आई नो। आई डू टू। 

डेविड लीन ने इस छोटे-से प्रेम-प्रसंग में जिस गहरे ऐन्द्रिक संवेदन के साथ लौरा जेस्सन के चरित्र को गढ़ा है वह प्रेम की कोमल और अश्प्रश्य भावना का अमर चित्रण है। बाद के वर्षों में केविन ब्रोनलो नाम के एक नामी फ़िल्म संग्राहक ने डेविड लीन के जीवन के एक प्रेम-प्रसंग को खोज निकाला जो लौरा जेस्सन के चरित्र की वास्तविक प्रेरणा थी। वह जो किर्बी/जोज़ेफ़ीन किर्बी/ थी जो चैशायर की रहने वाली थी और 1935 में डेविड लीन के साथ एक रोमेंटिक ट्रिप पर इटली गयी थी। यह एक संक्षिप्त अफेयर था जो शीघ्र ही समाप्त हो गया। जो किर्बी का 1979 में निधन हो गया। डेविड लीन के साथ इस संक्षिप्त प्रेम-प्रसंग को अपने पुत्र की पत्नी कैटरीन के अलावा उन्होंने कभी किसी से शेयर नहीं किया। कैटरीन के मुताबिक जो किर्बी हमेशा कहा करती थीं ‘‘ही वाज़ द लव ऑफ माई लाइफ, एंड आई नेवर गॉट ओवर इट’’।

लौरा और एलिक की अद्भुत प्रेम-कथा के बहाने जो किर्बी और डेविड लीन के संक्षिप्त लव-अफेयर को अमर बनाती यह फ़िल्म इस माइने में भी अहम है कि यह शायद एकमात्र फ़िल्म है जो अपनी आवयविक संरचना में किसी प्रेमकहानी को इतने पैशन के साथ रेलों के संसार से जोड़ती है। लौरा और ऐलिक की मनःस्थितियों को ट्रेन की सीटी, एनाउन्समेंट, प्लेटपफॉर्म, रिफ्रेशमेंट रूम, ट्रैक से उठता रेल का धुआं, ट्रेन के दरवाज़ों के खुलने-बंद होने की आवाज़ आदि बिम्बों के माध्यम से बहुत ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। इसके अतिरिक्त इसका सबसे अहम पक्ष इसका संगीत है। महान रूसी संगीतकार रैश्मनिनोफ़ की सिम्फनी पियानो कंसर्टो न. 2 को एलिक और लौरा के मनोभावों से इस कदर अटैच्ड रखा गया है कि उनकी ख़ामोशी भी दर्शक को बोलती हुई लगती है। रैश्मनिनोफ की महान संगीत-रचना इस पिफ़ल्म में धड़कन की तरह बजती रहती है।


हांलाकि 1974 में इस फ़िल्म का एक रीमेक भी एलिन ब्रिज ने बनाया था। लौरा की भूमिका सोफिया लोरेन ने की थी और एलिक की रिचर्ड बर्टन  ने, लेकिन तमाम आध्ुनिक रंग-रोगन और स्टार-कास्ट के बावजू़द एलिन ब्रिज का प्रयास प्रभावित नहीं करता। डेविड लीन की दृष्टि का कोई जवाब नहीं। 
____________
दिलीप शाक्य, जलसाघर , in sept issue of yudhrat aam aadmi, a literary monthly
9868090931

20 जुलाई 2014

तारकोवस्की का कथन और हमारे सिने-दर्शक [पाँचवी किश्त ]

जलसाघर 
Column by dilip shakya on Cinema/Art [मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी]

             


गांवों क़स्बों और जनपदों से
रेलों, मोटरों और लारियों में भरकर खिंचे आ रहे थे
मेलों, गीतों और लोककथाओं की दुनिया के हज़ारों क़िरदार

सिनेमा की दुनिया में ऐसे खोए
कि भूल गए अपने ही पैरों के निशान
उनकी हथेलियों से ग़ायब हो गयीं भविष्य की रेखाएं
हू-ब-हू एक जैसे हो गये  सबके अंगूठों के  हस्ताक्षर

सिनेमा देखते क़िरदार और फिल्म के बीच सरकते रहे
उनकी अपनी ज़िंदगी के अनगिनत अनसुलझे रहस्य बिंब और आख्यान
जबकि फिल्म की रील में नहीं था उनके सपनों का एक भी नेगेटिव
[अंश, शहर के स्वप्न में] 

यह कवितांश हमें सिनेमा देखने के उस ख़ास अनुभव की ओर ले जाता है जो अब तक़रीबन समाप्तप्राय अवस्था में पहुंच रहा है। धूल भरे क़स्बों और जनपदों के सिनेमाघरों की हैसियत किसी पुरानी हवेली या डाक-बंगले की इमारत से कम नहीं होती थी। जिस प्रकार हवेलियों और डाक-बंगलों से निकलकर अनेक झूटी-सच्ची कहानियां लोक में समा जाती थीं उसी प्रकार सिनेमाघर भी अनेक कहानियों के जन्म लेने और मिट जाने के गवाह रहते आए थे। वे सामूहिक मनोरंजन के नए केन्द्र थे। मध्यवर्गीय जीवन की रोमानी बिडम्बनाओं, नॉस्टेल्जिक भावनाओं और किशोर कल्पनाओं की उत्तेजनाओं से भरे। यदि किसी सिनेमाघर को विटनेस-बॉक्स में बुलाकर पूछा जाए तो ऐसी अनेक मनोहर कहानियों के सफ़े खुलने लगेंगे जो किसी भी समाज की सुविधाजनक छवि को एक ही समय पर चमकाने और धूमिल करने के लिए पर्याप्त होंगे।

बरिश में भीगते फ़िल्मी पोस्टर और नए दौर के डिजिटल डिस्पले
महानगर की घनघोर बारिश। मल्टीप्लैक्स। मैटिनी शो का इंतज़ार। फ़िल्म के विशाल डिजिटल डिस्पले। मल्टीप्लैक्स के अंदर आते ही बारिश की नमी जाती रही। पुरानी काट के सिनेमाघर की स्मृति लौट आयी। मूसलाधार बारिश में छाता संभाले प्रेमी युगल टिकिट खिड़की पर। फ़िल्म के रंगीन पोस्टर में तिरछी बूंदों से भीगते मनोज कुमार और साधना के चेहरे। बारिश से इस तरह धुल गए थे मानो कैमरे ने फिल्टर बदल लिया हो। सिनेमाघर के रुपहले पर्दे पर जैसे ही चेहरे पर जु़ल्फों के महीन रेशे बिखेरे अभिनेत्री साधना ने गाना शुरू किया ‘रिम झिम रिम झिम नैना बरसे पिया तेरे मिलन की आस’.... सिनेमाघर की छत ओलों से गड़गड़ाने लगी। यह एक विचित्र अनुभव था। दोपहर का समय, बारिश की आवाज़ और 60 के दशक की मशहूर फ़िल्म ‘वो कौन थी’ का गहराता रहस्य। इन्टरवल के दौरान फिर उसी पोस्टर को देखा। सारे रंग धुलकर एक फीकी नीलाई में समा गए थे। पोस्टर का एक कोना उखड़कर हवा से बार-बार हिल रहा था। स्मृति वापस लौटी। स्मृति की भीनी भीनी गंध से खाली नए दौर के डिजिटल डिस्पले पर एक उड़ती निगाह डालकर हम मल्टीप्लैक्स के मैटिनी शो में बैठ गए। 

तीन घंटे के अंधेरे में तैरता स्वप्निल उजाला 
स्कूल और कॉलेज के दिनों में परीक्षा केन्द्र और सिनेमाघर ज़्यादातर लड़के-लड़कियों के जीवन में एक विशेष आकर्षण का मक़ाम रखते थे। दोनों में ही तीन घंटे की समयावधि का रोमांच बांधे रखता है। फ़र्क यही है कि सिनेमा की तरह परीक्षा में कोई इन्टरवल नहीं होता और एक ही परीक्षा को आप बार-बार नहीं दे सकते। सिनेमा देखते हुए प्रायः सभी स्थायी भावों से रसों की उत्पत्ति होती है जो प्रायः सुखद प्रतीत होती है किन्तु परीक्षा देते समय केवल एक ही स्थायी भाव जागृत रहता है वह है भय, जिसकी परिणति सुखद भी हो सकती है और दुखद भी। लेकिन परीक्षाओं का एक अच्छा पहलूू यह भी था कि उसके बाद छुट्टियां हो जाती थीं और सिनेमा देखने की खुली छूट मिल जाती थी। स्कूल-कॉलेज और सिनेमा की यह लघुकथा उस परिवेश की लघुकथा है जो आज की तरह गूगल सर्च, यू-ट्यूब वीडियो और विकीपीडिया जैसे क्रांतिकारी ज्ञान-माध्यमों से खचाखच नहीं था। आज यू-ट्यूब जैसी वैबसाइटों ने सिनेमा-दर्शन की दुनिया में ऐसा कारनामा कर दिखाया है कि नयी से नयी और पुरानी से पुरानी फ़िल्म आप कितने ही इन्टरवल्स के साथ कितनी ही बार देख सकते हैं और वह भी न्यूनतम खर्चे में। बड़े शहरों में नयी पीढ़ी के दर्शक शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स़ का सिनेमा देख रहे हैं तो छोटे शहरों के दर्शक टीवी-डीवीडी आदि के ज़रिये पाइरेटेड सीडी के बाज़ार की ओर मुड़ गए हैं या फिर टीवी चैनलों के अतिशय मनोरंजन में फंस गए हैं। हर हालत में सिंगल स्क्रीन थिएटर कहे जाने वाले सिनेमाघर या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं।

इस तरह के सिनेमाघरों में पहुंचे दर्शक अंधेरे और उजाले के एक अद्भुत मौन संवाद के बीच बैठे रहते हैं। पर्दे का उजाला हमारी ही ज़िदंगी के अनेक अंधेरे पक्षों का आकर्षक छायांकन है। यह उजाला तीन घंटे की नींद में देखे गए किसी स्वप्न सरीखा आभास देकर जाता है। उजाले के स्वप्न में चल रहे कौन से क़िरदार हक़ीक़त के अंधेरे में बैठे दर्शकों की चेतना में प्रवेश कर जाते हैं, इसकी हर दर्शक की एक अलग छुपी हुई कहानी है। दर्शक के लिए फ़िल्म देखना सामूहिक चेतना के अंधेरे में अपनी व्यक्तिगत कामनाओं को पा लेने का एक अस्थाई और आभासी प्रयास भर है। वह जानता है कि तीन घंटे के बाद उसे वापस अपनी रोज़मर्रा की कटु तिक्त सच्चाईयों में लौट जाना है। 

किताब में बदलता सिनेमा
जब भी आप किसी महानगर से किसी क़स्बे की ओर वाया ट्रेन सफ़र करेंगे, स्वयं को स्त्री की अनेक छवियों से घिरा हुआ पाएंगे। महानगर के रेल्वे स्टेशनों पर पाश्चात्य परिधानों वाली जो स्त्रियां गहरे आत्मविश्वास और खुलेपन से भरी दीखती हैं वही कस्बों के रेल्वे स्टेशनों पर एक ख़ास किस्म के संकोच और दबे-छुपेपन में सिमटी होती हैं। इनमें से अधिकांश छवियां हिन्दी सिनेमा की दो विभिन्न प्रकार की नायिका छवियों कोे सामने लाती हैं। क़स्बों के रेल्वेस्टेशन की स्त्री-छवि संयुक्त परिवारों की सामूहिकता की स्मृति को जगाती है और महानगर के रेल्वेस्टेशन की स्त्री-छवि एकल परिवारों की वैयक्तिकता को प्रतिबिम्बित करती है। स्त्री की मुखरता ने संयुक्त परिवारों की सामूहिकता से निकलकर एकल परिवारों की वैयक्तिकता में क़दम रख दिया है।

हमारे सिनेमा में प्रतिबिम्बित एकल परिवारों के बढ़ते चलन और स्त्रियों की इस मुखरता में एक गहरा सम्बंध है। अगर ध्यान से देखें तो 1994 की फ़िल्म ‘हम आपके हैं कौन’ के बाद संयुक्त परिवार की प्रतिष्ठा का गुणगान करने वाली कोई अन्य सफल फिल्म नहीं दिखाई देती। उदारीकरण के बाद के सिनेमा की कहानियां कमोबेश एकल परिवारों की ही कहानियां हैं। ये कहानियां समाज में सामूहिक अनुभव से वैयक्तिक अनुभव की दिशा में निरंतर अग्रसर होती कहानियां है। यही बात भारतीय सिनेमा के दर्शकों के बारे में कही जा सकती है। वे सिनेमाघरों की सामूहिकता से निकलकर होम थियेटर की वैयक्तिकता में चले आए हैं। हर कहीं उपलब्ध फ़िल्म-सीडी और यू-ट्यूब वीडियो ने भारतीय सिने दर्शक को पाठक और फ़िल्म को किताब में बदल दिया है। कहने का अर्थ यह है कि अब आप किसी फ़िल्म को किताब की तरह पढ़ सकते हैं, वो भी नितांत अकेले, और चाहें तो क़िश्तों में। इस नए दर्शक के लिए तीन घंटे की समयावधि की अनिवार्यता का कोई अर्थ नहीं है। यही वह तर्क है जो फ़िल्म की पारंपरिक कथा संरचना ‘आरंभ, मध्य और अंत’ की धारणा को खंडित कर देता है। यानि फ़िल्म की लम्बाई कुछ भी हो नया दर्शक अपने इंचीटेप के मुताबिक ही फ़िल्म की लम्बार्इ्र तय करेगा। अब यही काम कुछ फ़िल्म-निर्देशकों ने भी शुरू किया है। दो भागों में निर्मित अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘गैैंग्स ऑफ वासेपुर’ इस इंचीटेप का एक उम्दा उदाहरण है।

तारकोवस्की का कथन और हमारे सिने-दर्शक
मशहूर रूसी फ़िल्मकार आन्द्रेई तारकोवस्की ने अपनी आत्मकथात्मक फ़िल्म ‘मिरर’ पर एक मज़ेदार टिप्पण्पी की है-

‘‘कोई दर्शक किसी फ़िल्म की विषयवस्तु से जितना अधिक दूर होता है, उतना ही वह सिनेमा के अधिक निकट होता है। सिनेमा में लोग अपनी ज़िंदगी की धारावाहिकता खोजते हैं न कि बदलावों को।’’

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हमारे दर्शकों के साथ इसका उल्टा होता है। सौ में से नब्बे दर्शक विषय-वस्तु और दोहराव का सिनेमा देखते हैं। शायद यही वजह है कि पाइरेटेड फ़िल्मों का सबसे बड़ा बाज़ार भारत ही है। जिस सिने-बिम्ब को एक फ़िल्म-निर्देशक अपनी कल्पनाशीलता और श्रम से तैयार करता है, हम उसे एक चलताउ निगाह से देखकर आगे बढ़ जाते हैं। भारतीय दर्शक के इस ख़राब जीवनबोध और सौन्दर्यबोध के कारण बड़े बड़े प्रतिभाशाली निर्देशकों को बॉक्स ऑफिस की खिड़कियां नसीब नहीं होती और दर्शकों का सौन्दर्यबोध बिगाड़ने वाले मामूली प्रतिभा के निर्देशक करोड़ों कमाकर हमेशा बाज़ार में बने रहते हैं। गीतकार शैलेन्द्र द्वारा निर्मित और बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित फ़िल्म तीसरी क़सम का बॉक्स ऑफिस पर न ठहर पाना इस स्थिति का सटीक उदाहरण है, जबकि यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक अद्भुत फ़िल्म है। यही क्यों सत्यजीत रे, रित्विक घटक, मृणाल सेन आदि की परम्परा में विकसित अनेक ऐसे फ़िल्मकार हैं जो फ़िल्म महोत्सवों की तो जानी मानी हस्तियां हैं किन्तु एक आम मध्यवर्गीय दर्शक ने बमुश्किल ही इनके नाम सुने होंगे। हमारे समाज में सिनेमा देखने के तौर-तरीकों का अध्ययन किया जाए तो बड़े दिलचस्प नतीज़े सामने आएंगे। प्रायः यह धारणा है कि दर्शक सिर्फ़ फेयरीटेल, फैंटेसी या सनसनी पैदा करने वाला सिनेमा देखना चाहता है। सिनेमा उसके लिए सिर्फ़ मनोरंजन है। जिन रोज़मर्रा की मुश्किलों से वह दो चार होता है उन्हें सिनेमा में बर्दाश्त नहीं करना चाहता। अनेक फ़िल्मकारों ने भारतीय सिने-दर्शक को उस रास्ते पर ले जाने की कोशिश की जो तारकोवस्की के कथन से निकलता है। देखना चाहिए कि आज के संदर्भ में तारकोवस्की के कथन का प्रतिनिधित्व करने वाले कितने निर्देशक और दर्शक हमारे समाज में हैं। 
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3 जुलाई 2014

ग़ज़ल

आंख भर आए तो सैराब में सहरा देखूं
और सहरा में समंदर कोई गहरा देखूं

आईनासाज़ था या कोई फ़ुसूंगर जानां
तेरे चेहरे में बदलता मेरा चेहरा देखूं

जिस्म पर मेरे तेरा रंग बहुत सजता है
तेरी आंखों में उसे आैर भी निखरा देखूं

क्या तेरी ज़ुल्फ़ को छूकर इधर आई है हवा
इसकी आवाज़ में उठता हुआ लहरा देखूं

होंट आकाश पे रक्खूं तो दहकती है ज़मीं
जलते क़दमों में सफ़र आंखों का ठहरा देखूं

खेंच तुझको तेरे पहलू से चलूं अर्शनगर
फिर ख़ला में जो कोई टूटता तारा देखूं

मैं तो बस तेरा तलबग़ार हूं एे जान-ए-अदा
तू कहे बाद-ए-सबा तू कहे सहरा देखूं
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दिलीप शाक्य

6 जून 2014

हिन्दी सिनेमा का साड़ी-प्रसंग [चौथी किश्त]

जलसाघर 

Column by dilip shakya on Cinema/Art [मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी]




दादा साहब फालके निर्मित भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्र में फ़िल्म की नायिका तारामती का परिधान साड़ी है किन्तु यह दिलचस्प तथ्य है कि पत्रिका इन्द्रप्रकाश के मई 1912 के अंक में विज्ञापन देने के बाद भी फ़िल्म की नायिका नहीं मिली, तो फिर यह साड़ी एक पुरुष अभिनेता अन्ना सालुन्के ने पहनी, जो एक होटल में बावर्ची थे। फ़िल्म के निर्दशक फालके की ही तरह तारामती का अभिनय करने वाले सालुन्के महाराष्ट्रियन थे और उन्होंने जो साड़ी फ़िल्म में पहनी वह भी महाराष्ट्रियन थी। महाराष्ट्रियन साड़ी आज के दौर की स्त्री अभिनेत्रियों ने भी पहनी है किन्तु फालके की फ़िल्म में वह नायिका का परिधान था जबकि आज की फ़िल्मों में अधिकतर उसे आइटम सोंग सीक्वेंसेज़ के लिए इस्तेमाल किया गया है। यूं तो राजकपूर की फ़िल्म बॉबी के गीत झूट बोले कौआ काटे की महाराष्ट्रियन साड़ी में डिम्पल कपाड़िया ने शानदार नृत्य किया है किन्तु 1990 की फ़िल्म सैलाब के गीत ‘हमको आजकल है इन्तज़ार’ में माधुरी दीक्षित ने जिस उत्तेजना और सौम्यता के साथ वह साड़ी नृत्य किया था, वह आज के दौर की फ़िल्म अग्निपथ के चिकनी चमेली वाले कैटरीना नृत्य को बहुत पीछे छोड़ देता है।

यंूू देखा जाए तो हिन्दी के मुख्यधारा सिनेमा में ज़्यादातर साड़ियां उत्तर भारतीय पैटर्न की रही आयी हैं। ऐसा शायद इसलिए रहा कि 90 के दशक के उत्तरार्द्ध तक हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा बाज़ार उत्तर भारत के गांवों, क़स्बों और शहरों से बनता था। मधुबाला, बैजन्तीमाला, नूतन, आशा पारेख, नन्दा और मुमताज जैसी अभिनेत्रियों ने 60 और 70 के दशक में साड़ी की लोकप्रियता को बहुत रौनक बख़्शी। 80 के दशक में रेखा, श्रीदेवी, शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल के स्त्री चरित्रों ने साड़ी को मध्यवर्गीय स्त्री के परिधान के रूप में पेश किया। 90 के दशक में दृश्य बदलता है और स्त्री चरित्रों के परिधानों में जीन्स टॉप और स्कर्ट का अनुपात बढ़ने लगता है फिर भी माधुरी दीक्षित उस दौर की शायद एकमात्र ऐसी अभिनेत्री थीं जो ‘हम आपके हैं कौन’ फ़िल्म की रिलीज़ के बाद एक मुकम्मल साड़ी-बिम्ब में बदल चुकी थीं। छोटे शहरों के वस्त्र विक्रेताओं की दुकानों पर आज भी इन अभिनेत्रियों के साड़ी-चित्र देखने को मिल जाएंगे। 90 के दशक के उत्तरार्द्ध में शाहरुख़ और काजोल अभिनीत ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंेगे’ से फ़िल्म-उद्योग में ओवरसीज़ सिनेमा का नया बाज़ार खुला और फ़िल्मों के विषय छोटे शहरों और क़स्बों से निकलकर दिल्ली, मुंबई और योरप, अमेरिका के दर्शकों की रुचि-अरुचि को ध्यान में रखकर तय होने लगे और आजकल तो फ़िल्मों में गांव और क़स्बों के दृश्य केवल सैर-सपाटे के लिए रह गए हैं। वे फ़िल्मों की आंतरिक संरचना का हिस्सा नहीं हैं। यही वजह है कि हाशिए के समाजों में जी रहा दर्शक इस नए ढंग की फ़िल्म संस्कृति से स्वयं को अलग-थलग महसूस करता है।

इतिहास की तरफ़ देखें तो भारतीय समाज में साड़ी का प्रचलन सिंधु-घाटी सभ्यता के आरंभ से ही रहा है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के अवशेषों में जिस धर्मोपदेशक का उल्लेख मिलता है उसके वक्ष पर साड़ी के जैसा ही कोई वस्त्र लिपटा दिखाई देता है। कालान्तर में बौद्धकालीन समाज में स्त्रियों द्वारा धारण किए जाने वाले ‘सात्तिका’ नाम के परिधान का उल्लेख मिलता है। ‘सात्तिका’ प्राकृत भाषा का शब्द है जो बिगड़ते-बिगड़ते पहले ‘साती’ हुआ फिर ‘साड़ी’ हो गया। महाभारत में द्रौपदी के चीर-हरण प्रसंग में भी जिस वस्त्र का उल्लेख है उसे साड़ी के रूप में देखा गया है। पुराणकालीन विवरणों में भी विभिन्न देवियों और देव-पत्नियों का परिधान भी साड़ी ही है। इस प्रकार साड़ी प्रायः भारतीय नारी को एक संस्कृति-प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती रही है। प्रसिद्ध श्लोक ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः’ में भी शायद साड़ी वाली स्त्री से ही आशय है।

अंग्रेजी आधुनिकता और भारतीय नवजागरण के दौर में नारी के इस सांस्कृतिक प्रतीक पर अतिशय बल दिया गया था, जिसकी ख़िलाफत भी उस दौर की अनेक स्त्री चिंतकों एवं पुरुष विचारकों ने की थी। बाद के वक़्तों में कई भारतीय सिने-निर्देशक भी इन विचारों से प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी फ़िल्मों में स्त्री अभिनेताओं को केन्द्रीय महत्व देना आरंभ किया। अभिनेता के बरक़्स अभिनेत्री शब्द अस्तित्व में आया और नायक के बरक़्स नायिका। विमल राय ने एक ओर सुजाता जैसी अछूत स्त्री-नायिका के प्रेम की कहानी कही तो दूसरी ओर देवदास के ज़रिए बंगाली भद्र लोक में पारो और चन्द्रमुखी के चरित्र को नायिकत्व प्रदान किया।

विमल राय ने स्त्री के चरित्र को जिस सामाजिक परिवर्तन के बहाव में देखा था, उसे राजकपूर ने एक नयी परम्परा का वाहक बना दिया। राजकपूर की फ़िल्मों के प्लॉट तो सामाजिक होते थे किंतु उनमें नायिका की छविे से प्रायः रोमान्स जनरेट करने का ही काम लिया गया। फ़िल्म में स्त्री, नायिका भी होती थी और उसकी उपस्थिति भी केन्द्रीय होती थी किंतु राजकपूर ने स्टीयरिंग व्हील सदैव नायक के हाथों में रखा। उनकी फ़िल्में देखते हुए चित्रकार राजा रवि वर्मा की याद आती है जिनके स्त्री-बिम्ब देखने में अत्यंत संस्कारी लगते हैं लेकिन उनके भीतर से एक प्रकार की कामुक मांसलता झलकती रहती है। राजकपूर की फ़िल्मों की नायिकाएं भी प्रायः ऐसी ही हैं। ऐसा लगता है कि राजकपूर में साड़ी के प्रति एक प्रकार का ऑब्सेशन है। यह ऑब्सेसन इस हद तक था कि फ़िल्म ‘संगम’ तो में उन्होंने वैजन्तीमाला को हर दृश्य में एक नए काट की सफ़द साड़ी पहनायी। साड़ी को उन्होंने एक ऐसे सांस्कृतिक आवरण के रूप में अपनाया जिसमें से स्त्री की अस्मिता, कामुकता, और ऐन्द्रीयता का मिला-जुला रूप पूरे तेज के साथ दर्शक के समक्ष प्रतिबिम्बित होता रहे। इसी फ़िल्म में एक गाना है ‘क्या करुं राम मुझे बुड्ढा मिल गया’। इस गाने में फ़िल्म की नायिका ने एक विदेशी होटल में भारतीय साड़ी के रूपक में छुपे अनेक पाश्चात्य परिधान पहनकर नायक का मनोरंजन किया है जो उस दौर के पितृसत्तात्मक पुरुष की स्त्री-कामना का परिचायक है। इसी प्रकार फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में अभिनेत्री पद्मिनी रामचन्द्रन पर फिल्माया गाना ‘मोरे अंग लग जा बालमा’ भारतीय स्त्री देह का कामोद्दीपक एवं कलात्मक प्रस्तुतिकरण है। उनकी ‘फ़िल्म सत्यम शिवम सुन्दरम’ भी एक ऐसी स्त्री-नायिका की कथा है जिसका आधा चेहरा जला हुआ है, किन्तु राजकपूर चेहरे के समस्त सौंदर्य को जी़नत अमान की देह-यष्टि में उतार देते हैं और दर्शक को बांधे रखने में क़ामयाब लगते हैं। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में सिर्फ़ एक झीनी सफ़ेद साड़ी में नायिका मंदाकिनी पर फ़िल्माया वर्षा-दृश्य तो किसी न्यूड-पेन्टिंग सा ही है।

राजकपूर की फ़िल्में जहां इस प्रकार की मध्यवर्गीय स्त्री-छवि की रचना कर रही थीं वहीं, उसी दौर के निर्देशक महबूब ख़ान ने फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ जैसी फ़िल्म बनायी जिसकी साड़ी उस स्त्री-बिम्ब की कथा कहती है जिसमें एक किसान स्त्री अपनी अदम्य जीजीविषा, अपने आत्म-संघर्ष और सामाजिक न्याय के प्रति अपनी चेतना को स्थापित करती है। राजकपूर और महबूब ख़ान के समानांतर एक और सिनेमा था जिसे सत्यजीत रे, मणि कौल, रित्विक घटक, श्याम बेनेगल और बासु भट्टाचार्य जैसे प्रतिभाशाली निर्देशकों ने बेहद कठिन जीवन-स्थितियों के बीच विकसित किया था। इन निर्देशकों ने शर्मिला टैगोर, शबानी आज़मी, स्मिता पाटिल आदि के रूप में एक अलग समाज और समुदाय की स्त्रियों को नायिकाओं के रूप में पेश किया जो मामूली साड़ियां पहनती हैं किन्तु जिन्हें फ़िल्म में एक ताकतवर यथार्थवादी स्त्री-बिम्ब के रूप में उभरता हुआ दिखाया गया है। पिछले 5-10 वर्षों में अनेक ऐसी फ़िल्में आयीं है जिनमें इन फिल्मकारों के स्त्री सरोकारों को फिर से प्रस्तुत करने की कोशिशे की जा रही हैं। एकदम नये निर्दशक सौमिक सेन की फ़िल्म गुलाब गैंग एक ऐसा ही कारनामा है जिसे आज के मेट्रोपोलिस दौर में सिर्फ एक गुलाबी साड़ी के सहारे संभव किया गया है। गुलाब गैंग की गुलाबी साड़ी नए समाज में स्त्री के प्रतिरोध का सबसे ज़िन्दा प्रतीक है। माधुरी दीक्षित अभिनीत इस फ़िल्म को देखकर प्रकाश झा की मृत्युदंड का वह दुश्य बरबस याद हो आता है जिसमें साड़ी पहने माधुरी दीक्षित के हाथों में गुलाब नहीं बन्दूक है। वस्तुतः यह दृश्य ‘मदर इंडिया’ के अंतिम दृश्य में बन्दूक फायर करती नायिका नरगिस की स्त्री-छवि का ही छाया अनुवाद है।

दिलीप शाक्य/जलसाघर

30 मई 2014

ग़ज़ल

उसने फिर डूबने आंखों में बुला रक्खा है
किश्तियों में कोई दरिया सा छुपा रक्खा है

तूूने हर सू उसे अफ़साना बना रक्खा है
छोड़ अफ़साने को अफ़साने में क्या रक्खा है

आईना छोड़ मेरे अक़्स मेरे पीछे आ
देख किसको तेरे बदले में बुला रक्खा है

मैं ज़माने के किसी काम का अब कैसे रहूं
उसकी हर बात ने दीवाना बना रक्खा है

शाख़ की अश्क़फ़िशानी है जिसे गुल कहिए
मेरा रोना है जो बादल ने उठा रक्खा है

दिल की तस्वीर में सांसों का धड़कना देखूं
मैंने कानों को भी आंखों से लगा रक्खा है

जान लेकर भी हमें जां नहीं देने देती
नाम हमने तेरा ऐ जान, अदा रक्खा है

दर्द का क्या है सितारों सा लुटाएंगे इसे
नूर सारा तेरी राहों में बिछा रक्खा है

वक़्त-ए-आख़िर हमें सीने से लगाओ तुम ही
मौत को हमने ये फ़रमान सुना रक्खा है

आग शम्ओं की जला देगी है मालूम हमें
फिर भी परवाना हवाओं में उड़ा रक्खा  है

जुस्तज़ू है तेरी सैराब सी, ले आयी है
वरना सहराओं की इस सैर में क्या रक्खा है

तुम कभी गुज़रो इधर से तो सदाएं सुनना
दिल ने सहरा में भी इक बाग़ खिला रक्खा है
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 दिलीप शाक्य

24 मई 2014

ग़ज़ल

हर एक बात पे संजीदा हो रहा हूं मैं
हंसू कभी तो लगे है कि रो रहा हूं मैं

शहर की आंख खुलेगी तो अक़्स देखूंगा
बड़े सलीके से पलकें भिगो रहा हूं मैं

बताना मुझको सितारों जो उसका घर आए
अज़ल से रक़्स में दीवाना हो रहा हूं मैं

खिले हैं शाख़ पे गुन्चे कि सुर्ख़ बोसे हैं
ये किस विसाल के कोहरे में खो रहा हूं मैं

कभी वो दश्त में लौटे तो ऐ सबा कहिओ
उसी के ख़्वाब हैं, नींदों में बो रहा हूं मैं
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दिलीप शाक्य

2 मई 2014

ग़ज़ल

आंखों में जो गहरा है उसी झील का जल है
जिस झील में डूबा मेरा गुस्ताख़-सा दिल है

घुलती है बड़े नाज़ से पलकों की फ़िज़ा में
होठों की हंसी है या कोई मौसम-ए-गुल है

पेशानी पे ठहरे हुए दरिया की चमक है
माज़ी का रवां जिसमें कोई नीलकमल है

रुख़सार पे संवलाई हुई शाम का जादू
जादू से दमकता वही मासूम सा तिल है

कानों में नए चांद पहनकर वो मिले फिर
क़दमों में सितारों को बिछा देने का दिल है

क्यों शहर में भटकूं मैं तेरी ज़ुल्फ़ खुली है
इसमें मेरी मुश्किल के हर एक पेंच का हल है

जो अक़्स है मेरा वो तेरा ही तो बदल है
आईने से आगे कहां आईने का कल है
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दिलीप शाक्य

25 अप्रैल 2014

नए ज़माने की वार्ता-1/दिलीप शाक्य

[क़िस्सा एक स्कूटी-राइड का]

बरसों बाद एक लड़का जब अपने शहर लौटा तो उसने उस लड़की से मिलने के बारे में सोचा जिसके बारे में अब यह सोचना एक फ़िज़ूल ख़याल था कि वह कभी उसे प्रेम करता था। लड़के की तरह लड़की भी एक सुखी संपन्न गृहस्थ जीवन जी रही थी। लड़का कार से आया था फिर भी उसने उस बस का टिकिट लिया जो लड़की के घर से ठीक एक किलोमीटर पहले रुकती थी। लड़का शायद उस पुरानी स्मृति के रोमान को फिर जीना चाहता था।

दोपहर बाद का आसमान हल्के भूरे बादलों से झांक रहा था। लड़के को लगा कि वह बरसों पहले की उसी दोपहर के छायाचित्र में चला आया है जो कभी किसी शाम में ढलने को तैयार नहीं हुई। एक किलोमीटर का फ़ासला तय करते हुए लड़का उस मंदिर के बारे में सोचने लगा जिसकी एक दीवार के पीछे उसने लड़की के सम्मुख अपने प्रेम का झिझक भरा प्रस्ताव रखा था। जैसी कि प्रथा थी पुरानी फ़िल्मों की नायिकाओं की तरह लड़की ने लड़के से कहा कि पहले कोई मुक़ाम हासिल करो फिर सोचेंगे। लड़का तब लड़का था जबकि लड़की बड़ी हो चुकी थी। लड़के को बड़ा होना मंज़ूर नहीं था। लिहाजा कई बरसों तक उनकी मुलाक़ात नहीं हुई। अब जब घड़ी के कांटे कई हज़ार चक्कर लगा चुके थे, लड़के ने फिर अपने बड़े होने को झुठलाना चाहा।

लड़का अपनी स्मृति को खुरच ही रहा था कि हल्के ट्रैफ़िक के शोर से निकलकर एक पुरानी सफ़ेद स्कूटी नज़दीक आकर रुकी- हैलो मिस्टर, पहचाना? लड़के के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वही लड़की सामने थी। धूप का काला चश्मा हटाते ही सांचे में ढली उसकी आंखें मुस्कुराने लगीं - इधर किधर?

‘‘आज भी वही स्कूटी?’’ लड़के ने पूछा।

’आपको कोई एतराज़ है?’ लड़की ने जवाब दिया।

‘नहीं!....लिफ्ट मिलेगी? ’

या स्योर, बोलो कहां ड्रॉप करना है?

‘पहले किसी रेस्टोरेंट में कॉफी, फिर बस स्टॉप।’

‘आज भी बस स्टॉप? लड़की ने पूछा।

‘आपको कोई एतराज़ है? लड़के ने जवाब दिया।

‘नहीं!....बैठो। लड़की ने कहा।

‘लेट मी ड्राइव’। लड़के में छिपे पुरुष ने अपनी जगह बनाते हुए पूछा।

‘नो वे, मत भूलो कि स्कूटी हमारी है। तो ड्राइव भी हम ही करेंगे। तुम पीछे बैठो। लड़की अभी भी लड़की ही थी। स्त्री होने के आत्मविश्वास से भरी।

लड़की ने स्कूटी स्टार्ट की, लेकिन लड़का अभी भी खड़ा था।

बैठो!

कैसे ? पुराने स्टाइल में?

हा हा... काफ़ी समझदार हो गये हो!...सिट क्रॉस लैग। सख़्त लहजे में लड़की ने कहा। लड़के ने वैसा ही किया। फिर रेस्टोरेंट में कॉफी पीते हुए दोनों उस पुरानी स्मृति पर बहुत देर तक हंसते रहे। लड़की बताती रही कि पिछली बार लड़का कैसे क़स्बाई महिलाओं की तरह विदाउट क्रॉस-लैग बैठा था और फिर लड़की ने कहा था-सिट क्रॉस-लैग। लड़की ने याद किया कि वह कैसा दब्बू सा दिख रहा था जब उसे स्कूटी ड्राइव करती एक लड़की के पीछे बैठना पड़ा था। ‘एण्ड यू वर लुकिंग लाइक रानी झांसी सिटिंग ऑन हॉर्स। लड़के ने शरारत के लहजे में ही सही, एक गंभीर बात कह दी थी, जो लड़की को अच्छी लगी।

कॉफ़ी ख़त्म हुयी। लड़की ने फिर स्कूटी स्टार्ट की। लड़का फिर पीछे बैठा। एक किलोमीटर की स्कूटी राइड में ब्रेक का वक़्त था। लड़की ने उसी मंदिर के सामने ब्रेक लगाया जिसके बारे सोचते हुए लड़के की स्मृति में स्कूटी राइड का दृश्य उभरा था।

‘‘यहां क्यों? क्या फिर से प्रपोज़ करना होगा?’’ लड़के ने थोड़ा रूमानी होते हुए पूछा।

‘‘नहीं मिस्टर! तुम्हें यह दिखाने के लिए कि पिछली बार जिसे मंदिर समझ के देखा था, देखो आज वह कैसा मक़बरे सा लगता है।’’
लड़की ने थोड़ी झुंझलाहट में स्कूटी स्टार्ट की और लड़के को उसी बस-स्टॉप पर ड्रॉप किया, जहां से दोनों के रास्ते हमेशा हमेशा के लिए अलग हो गये थे। लड़का चलते-चलते लड़की की पलकों में देखना चाहता था कि वहां किसी पहाड़ी दरख़्त की छांव है या किसी रेगिस्तानी नदी की धूप, लेकिन लड़की ने चलते-चलते भी अपनी आंखों से धूप का चश्मा नहीं हटाया।
[नोट: इस वार्ता के सभी विवरण काल्पनिक हैं, फिर भी वार्ताकार का आग्रह है कि उन्हें सत्य समझकर पढ़ा जाए। वार्ता के संबंध में किसी भी प्रकार के प्रश्नोत्तर के लिए टिप्पणीकार स्वतंत्र हैं। आशा है वृत्तांत-लेखन की यह शैली आपको पसंद आएगी। अपने विचार साझा करें। आगे विविध विषयों पर अनेक वार्ताएं आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं-वार्ताकार। ]

23 अप्रैल 2014

वीडियो हॉल मतलब छोटे क़स्बों के सिनेमाघर [तीसरी किश्त]

जलसाघर 

Column by dilip shakya on Cinema/Art [मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी]



वीडियो हॉल मतलब छोटे क़स्बों के सिनेमाघर [तीसरी किश्त]
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2002 के गुजरात दंगों के बाद टीवी समाचारों में बाबरी विध्वंश के वृत्तांत फिर जीवित होने लगे थे। ऐसे में आनंद पटवर्धन की वृत्तचित्र फ़िल्म ष्राम के नामष् की याद आयी। कई मित्रों को फोन किया कि कहीं सीडी उपलब्ध हो तो देख लें। सीडी तो नहींए हां एक मित्र के पास वीएचएस टेप ज़रूर मिला। लेकिन तब तक शहरों में कम्प्यूटर और सीडी का बाज़ार इस क़दर बढ़ चुका था कि चलन से बाहर हो चुके वीसीआर को हासिल करना असंभव ही हो गया। बड़ा मलाल रहा। इधर लोकसभा चुनाव के मौसम में मोदी की आभासी बहार आयी तो सोचा अब देख ली जाए। झट से गूगल पे गए टाइप किया ष्राम के नामष् और फ़िल्म हाज़िर। यू ट्यूब पर 75 मिनिट की फ़िल्म यूंही बैठे.बैठे देख ली। बिना किसी तैयारी के। बिना किसी को डिस्टर्ब किए। जब चाहा पॉज़ किया जब चाहा रिज़्यूम। यह आज के दौर में सिनेमा देखने का वास्तविक अनुभव है। लेकिन एक ऐसा दौर भी था जब ऐसा सोचना भी एक ख़ामख़याली के सिवा क्या था। 

वह उदारीकरण से पहले का दौर था। टीवी पर ष्हम लोगष् जैसे पारिवारिक सोप ओपेरा के बाद रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक अपार लोकप्रियता हासिल कर चुके थे। घरों की छतों पर लगा टीवी एन्टीना भारतीय मध्यवर्ग की जीवन शैली का नया अलंकरण था। रंगीनध्श्वेत.श्याम टीवी ने इन मध्यवर्गीय घरों के ड्राइंग.रूम में स्थायी सदस्यता प्राप्त कर ली थी। टीवी पर हर सप्ताह दिखाए जाने वाले चित्रहारए फीचर फ़िल्म और सुगम संगीत के कार्यक्रमों ने सिनेमाघरों के बहुत से दर्शक अपनी ओर खींच लिए थे। इस दौर के भारतीय समाज ने एक नयी दृश्य.श्रव्य संस्कृति को आकार लेते देखा जिसे नाम मिला उपभोक्तावाद। भारत के छोटे.बड़े घरों में स्थाई अतिथि सा विराजमान टेलिवज़न सेट इस उपभोक्तावाद का सबसे बड़ा प्रमोटर था। 

फिर वो दौर आया जिसने इस टीवी सेट को एक नए बाज़ार से जोड़ दिया। इस बाज़ार ने पूरी दुनिया के सिनेमा.उद्योग को प्रभावित किया। दृश्य.माध्यमों की दुनिया में यह एक नयी क्रांति थी। टीवी सेट की तरह ही एक और इलैक्ट्रोनिक चमत्कार ने भारतीय बाज़ार में दस्तक दी। इसे वीसीआर कहा गया। इसने ऑडियो कैसेट की लम्बाई और चौड़ाई में उससे दो गुने वीएचएस टेप के माध्यम से टीवी स्क्रीन पर फ़िल्मों अथवा पहले से रिकॉर्डेड वास्तविक वीडियो का प्रदर्शन संभव बनाया। भारतीय बाज़ार में ये वीएचएस टेप जिन्हें ऑडियो कैसेट की तर्ज पर ही वीडियो कैसेट नाम मिला थाए अक्सर टीवी सेट पर फ़िल्में देखने और दिखाने के लिए उपयोग में लाए जाते थे। 

महानगरों और बड़े शहरों मंे जहां पर्याप्त सिनेमाघर थेए टेलिविज़न सेट की यह भूमिका सिर्फ उच्चमध्यवर्गीय घरों तक ही सीमित थी। वहां ऐसे वीडियो पार्लर थे जो रेंट पर फिल्मों के वीडियो कैसेट उपलब्ध करा सकते थे। किन्तु छोटे क़स्बों में जहां न सिनेमाघर थे न ऐसे वीडियो पार्लरए वहां इस भूमिका का निर्वाह वीडियो हॉल कर रहे थे। वीसीआर पर इस प्रकार फ़िल्मेें देखने और दिखाने का एक व्यावसायिक पहलू भी था जिसने दुनिया भर के सिनेमा.उद्योग की नींद उड़ा दी थी। 

भारत में तो इस व्यवसायिक पहलू का असर बाद में हुआ। सबसे पहले इसका सामना अमेरिका ने किया। दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म प्रोडक्शन फॉक्स टीवी जब घनघोर घाटे में आ गया तो उसने 1977 की अपनी हिट फ़िल्म ष्स्टार वार्सष् को 1982 में होम वीडियो पर रिलीज़ किया। यह दुनिया की पहली कॉमर्शियल वीएचएस रिलीज़ थी। हालांकि इससे पहले सन 1972 में एक कोरियन फ़िल्म ष्द यंग टीचरष् को वीएचएस पर रिलीज़ किया जा चुका था। यह एक रंगीन पारिवारिक फ़िल्म थी जो एक ऐसी युवा अध्यापिका की कहानी कहती है जो स्कूल की प्रतिष्ठा और अपने आत्मविश्वास को आगे लाने के लिए संकीर्ण सोच वाले स्कूल बोर्ड और प्रिंसिपल से संघर्ष करते हए एक वॉलीबॉल मैच का आयोजन करती है। इस आयोजन के दौरान दो विद्यार्थी स्कूल से भाग जाते हैं। अध्यापिका के उदार तरीकों और खुली सोच को इस घटना का ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। फिर भी अंततः अध्यापिका मैच संपन्न कराने में सफल होती है। 

यह फ़िल्म पहली वीएचएस रिलीज़ अवश्य थी किन्तु इस प्रयोग को वह एक ट्रेंड में नहीं बदल सकी। यह बदलाव 1982 में स्टार वार्स की वीडियो रिलीज़ के बाद ही आया। बाद के दिनों में यह बदलाव इतना लोकप्रिय हुआ कि कई देशों ने तो वीसीआर द्वारा फ़िल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर बाक़ायदा रोक लगा दी थी। एक अध्ययन के अनुसार 1981 में फिलिपीन्स के मनीला में सिनेमाघरों के दर्शकों की उपस्थिति 30 प्रतिशत तक कम हो गयी थी। धीरे.धीरे यह बदलाव एक व्यावसायिक रूप लेता गया और अनेक नयी पुरानी फ़िल्में वीडियो कैसेट पर उपलब्ध होने लगीं। इन वीडियो कैसेटों के चलन ने बड़े सिनेमाघरों के बरक़्स या उनकी अनुपस्थिति में एक नए विकल्प के रूप में अपने छोटे.छोटे वीडियो हॉल विकसित करने शुरू कर दिए। ये वीडियो.हॉल उन छोटे क़स्बे में ज़्यादा लोकप्रिय होते गए जहां सिनेमाघर यानि कि सिंगल स्क्रीन थियेटर का पूरी तरह अभाव था। ऐसे वीडियो हॉल दक्षिण अफ्रीका के पिछड़े इलाकों में भी बड़ी संख्या में मौज़ूद थे। 80 के दशक के उत्तरार्द्ध और 90 के दशक के पूर्वाद्ध के भारत में भी ऐसे वीडियो हॉल अपना बाज़ार बना रहे थे। 

हमारे क़स्बे में भी तीन वीडियो.हॉल थे। अशोका वीडियोज़ए यादव वीडियोज़ और डायमंड वीडियोज़। इन तीनों वीडियो हॉल्स के साइन.बोर्ड क्रमशः नीलेए पीले और हरे रंगों से तैयार किए गए थे। क़स्बे में सामूहिक रूप से सिनेमा देखने के ये एकमात्र साधन थे। ये वीडियो हॉल उस लोकप्रिय संस्कृति का भी वाहक थे जिसके क़िस्से शहरों की हवा खा चुके स्मार्ट नौजवान और रंगीले अधेड़ सुनाया करते थे। ये क़िस्से प्रायः सिनेमा के नायकों अथवा नायिकाओं के बारे में हुआ करते थे। इस संस्कृति में क़स्बे के निकटवर्ती गांवों का बड़ा दर्शक वर्ग भी शामिल था। क़स्बे के बाज़ार में सौदा.सुलफ़ के बहाने आने वाले ग्रामीण लगे हाथ सिनेमा का एक शो भी देख जाते। 

क़स्बे में एक पेन्टर था बाबा पेन्टर। बाबा पेन्टर इन वीडियो हॉल्स के लिए फ़िल्मी पोस्टर बनाया करता था। ये पोस्टर क़स्बे के व्यस्त चौराहोंए स्कूल और अस्पताल की दीवारों और बस.स्टेंड पर सुशोभित हुआ करते थे। पोस्टर बनाने के साथ ही बाबा पेन्टर हर दिन साइकल रिक्शे पर फ़िल्म की एनाउन्समेट भी किया करता था। किसी थियेटर कलाकार के जैसी उसकी आवाज़ लाउड.स्पीकर से निकलकर पूरे क़स्बे में फैल जाती थी। एनाउन्समंेट की उसकी एक निश्चित शब्दावली थी जिसमें सिर्फ़ फ़िल्म और उसके नायकए नायिकाओं के नाम बदल जाते थे। इस शब्दावली में कुछ पारिभाषिक शब्द जैसे ईस्टमैन कलर.चित्रए माताओं और बहनों के देखने लायक रंगीन पारिवारिक चित्रए सिनेमा.स्कोप इत्यादि की स्थायी मौज़ूदगी रहती थी। छोटे क़स्बे के इन सिनेमाघरों मेें गंगासागरए संतोषी मां से लेकर गुलामीए डाकू सुल्तानाए क़यामत से क़यामत तकए जानी दुश्मन और मेरा गांव मेरा देश जैसी लगभग हर प्रकार की फ़िल्में लगा करती थीं। नयी फ़िल्में भी आती थीं लेकिन ज़रा देर से। फ़िल्म का टिकिटए हॉल का अंधेराए टॉर्च के सहारे सीट ढू़ढ़ने का तरीक़ा सब कुछ शहरी सिनेमाघरों की तरह ही था। 

इन वीडियो हॉल्स की एक नेपथ्य.कथा और थी। दिन के ये स्थिर सिनेमाघर निकटवर्ती छोटे क़स्बों और गांवों में रात के चल.सिनेमाघरों में बदल जाते थे। ऐसा शादी.ब्याह आदि के अवसरों पर होता था। गांव के किसी पक्के मकान की छत पर या खुले मैदान में एक गैस.लैंटर्न के सहारे रात भर लोग तीन या चार फ़िल्मों का आनंद लेते थे। यह अनुभव ख़ासा दिलचस्प अनुभव होता था। फ़िल्म स्क्रीनिंग के अवसरोें पर पुरुषों से अधिक संख्या महिलाओं और लड़कियों की होती थी। वे बिना किसी डर के खुले मन से फ़िल्म देख पाती थीं जो कि दिन के उजाले में वीडियो हॉल में हरगिज़ मुमकिन नहीं था। यह तब की बात है जब शादियों में वीएचएस पर वीडियो रिकॉर्डिंग का चलन आम नहीं था। शादियों के फोटो.एलबम तैयार करने का काम प्रायः पासपोर्ट साइज़ फोटो निकालने वाले फोटो.स्टूडियो के फोटोग्राफ़र ही किया करते थे। 

बाद के दिनों मंे वीडियो कैमरे और वीसीआर की कीमतों में कमी आने पर ये फोटो.स्टूडियो वीडियो.एलबम भी तैयार करने लगे। फिर धीरे.धीरे ऐसे वीडियो एलबम तैयार करने का चलन भी जाता रहा और अब हाई डिज़िटल दौर में सस्ते से सस्ते मोबाइल फ़ोन और कैमरे के ज़रिये हम मन चाही वीडियो क्लिप बनाकर उन्हें सोशल नेटवर्किंगए ऑनलाइन चैटिंग और यूट्यूब जैसी साइटों के ज़रिये चुटकियों में दुनिया के किसी भी कोने में बैठे अपने परिचितों के साथ शेयर कर सकते हैं गोया कि हमने अपनी ही ज़िदगी को एक विशाल सिनेमाघर में तब्दील कर दिया है। इस सिनेमाघर में हर क्षण चलने वाली फ़िल्मों के निर्माताए निर्देशक और अभिनेता सब कुछ हम स्वयं ही हैं। हमारी ज़िदगी से आबाद इन छोटी.छोटी फ़िल्मों में एक्शनए कॉमेडीए रोमान्सए ड्रामा सब कुछ है। पहले हम सिनेमा के बाहर खड़े थेए अब सिनेमा के भीतर चले आए हैं। 
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dilipshakya@gmail.com

19 अप्रैल 2014

opening lines, गुलाब की पत्तियां और कैंची/दिलीप शाक्य

कैंची से गुलाब की पत्तियॉं काटती एक औरत
हवा के जोर से खुल गयी खिड़कियों को
पलट रही है बार-बार

श्रंगार-मेज़ के आईने में झलक-झलक उठते हैं
एक चेहरे के छूटे हुए अक़्स
चेहरे में एक गुलाब गुमशुदा है
गुलाब में एक चेहरा

हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह की आवाज़
आह बनकर खिंचती है सीने में
‘लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी
फिर फूल में लग जा’
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[Remembering Gabriel Garcia Marquez
who left a great solitude behind..]

गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ तुम्हारे माकोन्दो विलेज की
रेमेदियोस द ब्यूटी तो नहीं थी वो?
जो हमारे क़स्बों की सरहदों पर उठे पीले आसमानों में
अपना नीला उत्तरीय लपेटे
उड़ गयी थी एक अलसायी दोपहर
वह एक अपार्टमेंट के बाथरूम में नहाते हुए
देख रही है मुझे
किसी अंतरिक्ष की बालकनी से..
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few lines from गुलाब की पत्तियां और कैंची/दिलीप शाक्य

13 अप्रैल 2014

ग़ज़ल

उधर है जान-ए-तमन्ना इधर ज़माना है
उधर भी जाना है मुझको इधर भी आना है

है उसकी चश्म का जादू कि दिल गुलाबी है
कड़ी कमान का इक तीर ग़ालिबाना है

मिले किसी को जो चाबी तो इस तरफ़ आए
हमारी नींद में ख़्वाबों का इक ख़ज़ाना है

मैं तेज़ धूप में हूं प्यास का बदन लेकर
वो आबशार है उसको मुझे बुझाना है

नयी उमीदों के तैयार हो रहे हैं लिबास
वफ़ा के शहर में यादों का कारख़ाना है

मैं चारागर तो नहीं फिर भी नब्ज़ देखूंगा
मेरे भी लम्स की बीमार को तमन्ना है

न अजनबी कोई तुमसा न मुझसा आशिक है
न तुमने जाना है मुझको, न मैंने माना है

इस इब्तिदा की कोई इन्तहा नहीं होनी
ये दरमियान का मारा कोई फ़साना है

है उसका नाम सियासत मेरा है शौक़-ए-जुनूं
शहर का काम तो दोनों को आजमाना है

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दिलीप शाक्य


9 अप्रैल 2014

ग़ज़ल

हर एक सिम्त से मुझमें समा रहे हो तुम
नदी के जल में भंवर सा बना रहे हो तुम

मुझे भी दो वो हुनर दिल में रह सकूं मैं भी
जला के मुझको नज़र में बुझा रहे हो तुम

मैं एक मौज़ हूं फिर नालाकश समन्दर में
उफ़क को फिर मेरा साहिल बता रहे हो तुम

ऐ चांद तुम भी किसी बज़्म में जले हो क्या
ये किसकी नज़्म है तारों में गा रहे हो तुम

क़रीब आओ तो सच झूठ का पता पाउं
ये क्या कि दूर से बातें बना रहे हो तुम

हवा का रुख़ तो मेरे आशियां की जानिब है
ये किस दिशा में क़दम आजमा रहे हो तुम

मैं जुगनुओं से सजा दूंगा आसमां को कल
बशर्ते आज वहां गुल खिला रहे हो तुम

मैं फिर गुलों से मुख़ातिब हूं तितलियां लेकर
मैं जानता हूं कि फिर मुस्कुरा रहे हो तुम

सुबह के हाथ में ख़ंजर न हो कहीं देखो
गिरा के रात का पर्दा उठा रहे हो तुम

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दिलीप शाक्य]

22 मार्च 2014

पानी की परछाईं

पानी नहीं था
पानी की परछाईं थी महज़

मैंने ख़ूब ख़ूब
बहुत ख़ूब टटोलकर देखा
प्यास के जिस्म में जान नहीं थी

प्यास की परछाईं थी महज़
जो पानी की परछाईं के
घुटनों पर झुकी थी

धरती के सीने से
रिस-रिस कर फूट रहा था
आंसुओं का एक नमकीन सोता
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दिलीप शाक्य


21 मार्च 2014

ग़ज़ल

लबों से देखे है आंखों से मुस्कुराए है
यूं मेरे दिल में कोई सुर्ख़ियां लुटाए है

सियाह रंग को यारो सलाम हो मेरा
वो एक तिल है जो रुख़सार को सजाए है

जुनूं में देखिओ दीवाना हो न जाउं मैं
ये इश्क़ यूं तो नहीं कुछ मग़र सताए है

जलेंगे हम भी वहीं तुम जहां बुझाओगे
कि राख़ में भी कोई आग सी लगाए है

हिले है बाग़ में पत्ता न फूल महके है
ये किसके नाम की गुल्चीं हवा बनाए है
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दिलीप शाक्य]

19 मार्च 2014

ग़ज़ल

खुली जो आंख तो तारों का जाल सा देखा
जो ख़्वाब में था हकी़की ख़याल सा देखा

नहीं था सामने मेरे तो था ख़ुदा सा तू
तुझे जो पाया तो पा के मलाल सा देखा

उठा ये दस्त-ए-तलब फिर किसी तमन्ना में
तुम्हारे रुख़ पे वही फिर जमाल सा देखा

हटा के रात के पर्दे को चांद तारों ने
दिलों के साज़ पे सांसों का सालसा देखा

इन आंधियों के मरासिम थे कुछ चरागों से
जो बुझ चुके थे उन्हें भी मशाल सा देखा
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दिलीप शाक्य

11 मार्च 2014

ग़ज़ल

मेरे कहने में न आया कभी कहना उसका
किसी ख़ामोश परिन्दे सा था सहना उसका

तंज की बात थी मैंने जिसे इल्ज़ाम सुना
रात भर नींद में गड़ता रहा हंसना उसका

साथ चलने नहीं देता है ज़माना हमको
मेरे गिरने का सबब ले है संभलना उसका

यूं ही बस चाल में ख़म देखके ठहरा हूं मैं
मेरे रुकने का इशारा नहीं चलना उसका

कितने परवाने फ़ना होने को घर से निकले
हाय उस रात में तफ़सील से जलना उसका

देखना खाक़ न कर दे ये तेरा जलसानगर
मेरे सीने में लहू बन के धड़कना उसका

बांधकर ज़ुल्फ को परचम कोई लहराते हुए
देख सड़कों पे ख़ुदा बनके उतरना उसका
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 दिलीप शाक्य]

7 मार्च 2014

ग़ज़ल

ये दिल का बाग़ शहर में खिला रहा हूं मैं
पलट भी आ ऐ गुलेतर बुला रहा हूं मैं

तुम्हारे पैर की आहट से गुलफिशां थी जो
वो शाख़ कबसे शज़र की हिला रहा हूं मैं

ये देख हंसता है मुझपे ज़माना सदियों से
शिक़स्ता साज़ है और सुर मिला रहा हूं मैं

चली है छेड़ तो कह दूं कि तू नहीं जानां
ये कार-ए-शौक़ जहां में चला रहा हूं मैं

बुलाओ तिश्नालबों को सजाओ मयख़ाना
कि फिर पियाले में सागर घुला रहा हूं मैं
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दिलीप शाक्य

4 मार्च 2014

ग़ज़ल

मैं इक सिरा हूं फलक का तो दूसरा है तू
कहूं तो कैसे ज़मीं से कि बस मेरा है तू

कुछ ऐसे जा कि मैं तड़पूं तेरी ही आमद को
पलट के आए तो कह दूं कि दूसरा है तू 

सजी है सेज सितारों के घर में आ सूरज
सुबह से शाम तलक धूप में फिरा है तू

है उसकी जागती आंखों से शबनमी ये गुल
ऐ मेरी रात के आंसू कहां गिरा है तू

हों क्यों न बज़्म में सरगोशियां ख़मोशी की
लबों पे उसके, मग़र मेरा तज़्किरा है तू

बढ़ा कि प्यास, मय-ए-शौक़ से लबालब मैं
बहुत-बहुत हूं यहां पर ज़रा-ज़रा है तू

गुलों के खिलने की उम्मीद अब भी बाकी है
है ज़र्द बाग़ मेरा, आ अगर हरा है तू 

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 दिलीप शाक्य

13 जनवरी 2014

ग़ज़ल

अरसा गुज़र गया है लबों को सिले हुए
आंखों से भी बयां न हमारे गिले हुए

कोहे-गिरां को ठेलना मुमकिन तो है मग़र
ख़ूंरेज़ कुहनियां हैं और घुटने छिले हुए

लहरों में कैसी आग है इस बार नाख़ुदा
साहिल को लौटते हैं सफ़ीने जले हुए

आते हैं चाराग़र यहां लेकिन तवाफ़ को
ख़ुद ही कुरेदें जख़्म क्या नश्तर मिले हुए

जलसानगर में आपका फिर ज़िक्र आ छिड़ा
साज़ों पे उंगलियों के जवां हौसले हुए

जी चाहता है तोड़ दें हर क़ैद उनकी आज
दिखते हैं जालियों से गुलेतर खिले हुए

मधुबन की झील में इन्हें धोएं जतन से गुल
सहरा से आए हैं क़दम बरसों चले हुए
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दिलीप शाक्य

7 जनवरी 2014

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य

नया सफ़र हो नया रास्ता नयी मंज़िल
ये रात चाहेगी कहना सुब्ह के कानों में

तो क्यों न मैं भी सुनूं बात इन सितारों की
मेरे भी वास्ते कुछ तो है आसमानों में

कहीं तो बर्फ़ गिरी है हवा है सर्द बहुत
तेरे लबों की चुभन बढ़ रही है शानों में

मिलाए रुख़ तो लिपट जाएं उसके सीने से
खड़े हैं हम भी ज़माने से क़द्रदानों में

ये इश्क़ तेरा अवामी नहीं सियासी है
वो सोज़ आए तो कैसे तेरे बयानों में

मेरे अहद के ख़रीदार हैं समझते हैं
पुराना माल न बेचो नयी दुकानों में

बदल के भेस नया रोज़ ख़ुद को ठगता हूं
न ऐसा पाओगे अय्यार दास्तानों में

 

3 जनवरी 2014

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य

टूटे हुए दिलों की आवाज़ फिर जवां है
जलसानगर में यारो इक सिंफ़नी रवां है

बोसों के फूल अब भी सीने में खिल रहे हैं
मैं बाग़ में खड़ा हूं वो गुलमोहर कहां है

बाज़ार खुल गया है और जेब भी भरी है
बोलो तो दाम पूछूं दिल की भी इक दुकां है

कोहरा छंटे तो देखूं रंगीं सुबह का जादू
शब की गुज़ारिशों का क्या रंग आसमां है 

जुल्फ़ें तुम्हारी कितनी पुरपेंच हो गयी हैं
इनमें किसी सियासत का फिर मुझे गुमां है

है दर्द ग़र नदी सा दिल भी तो हो समंदर
किश्ती सा हूं भंवर में दरिया ये बेकरां है

सज़दा करुं मैं क्योंकर मुंह फेरकर खड़े हो
मेरा भी कोई आख़िर अंदाज़ है बयां है

6 मई 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


ग़ुन्चा कहा करुं कभी नश्तर कहा करुं
क्योंकर मैं तेरी सेज को बिस्तर कहा करुं

जो आया तेरे नैन की जुम्बिश पे मर गया
रक़्क़ासां तुझको ज़िदगी क्योंकर कहा करुं 

आवागमन बना रहे, दिल के मकां को तू
मसजिद कहा करे तो मैं मंदिर कहा करुं

दिल की उड़ी जो ख़ाक तो ये आस्मां बना
तारों में जा बसा जिसे दिलबर कहा करुं

तारे दिखा रही है थका कर मुझे ये रात
ऐ चांद अब भी क्या तुझे रहबर कहा करुं

लो फिर ज़मीं पे आ गिरी दस्तार चांद की
सूरज को यानी फिर मैं सिकंदर कहा करुं 


फंसकर तेरे निज़ाम के चक्कों में जां गई 

इक जिस्म है बचा जिसे पिंजर कहा करुं


जंगल तमाम छान लिया घर की खोज में
कोई शहर मिले जिसे मैं घर कहा करुं 

आए रदीफ़ लेकर, कोई काफ़िया नया 
कब तक उसी ग़ज़ल को मुक़र्रर कहा करुं 

28 अप्रैल 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


भर गयी है गुलमोहर की शाख़ फूलों से
दुख रही है जाने फिर क्यों आंख फूलों से 

जिस घड़ी देखा उन्हें आते हुए कचनार ने
झड़ गयी मेरे जिगर की राख फूलों से 

खोजता ब्रज की गली मथुरा नगर की भीड़ में 
मधुबन दबाए फिर रहा है कांख फूलों से 

क्या हुआ मधुमास ने पतझर दिया तारे तो हैं
लो भर गया फिर आस्मां बैसाख फूलों से 

रात भर शेफालिका झरती रही ज़ेरे-उफ़क़
खुल गयी फिर रौशनी की पांख फूलों से 

आ गए फिर सामने लेकर वही शौक़े-जुनूं
फिर कह रही हैं बुलबुलें गुस्ताख़ फूलों से 

वीरां न हो ये रहगुज़र करते रहो अहदे-वफ़ा
क़ायम रहे बाज़ार की यह साख फूलों से