भर गयी है गुलमोहर की शाख़ फूलों से
दुख रही है जाने फिर क्यों आंख फूलों से
जिस घड़ी देखा उन्हें आते हुए कचनार ने
झड़ गयी मेरे जिगर की राख फूलों से
खोजता ब्रज की गली मथुरा नगर की भीड़ में
मधुबन दबाए फिर रहा है कांख फूलों से
क्या हुआ मधुमास ने पतझर दिया तारे तो हैं
लो भर गया फिर आस्मां बैसाख फूलों से
रात भर शेफालिका झरती रही ज़ेरे-उफ़क़
खुल गयी फिर रौशनी की पांख फूलों से
आ गए फिर सामने लेकर वही शौक़े-जुनूं
फिर कह रही हैं बुलबुलें गुस्ताख़ फूलों से
वीरां न हो ये रहगुज़र करते रहो अहदे-वफ़ा
क़ायम रहे बाज़ार की यह साख फूलों से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें