अरसा गुज़र गया है लबों को सिले हुए
आंखों से भी बयां न हमारे गिले हुए
कोहे-गिरां को ठेलना मुमकिन तो है मग़र
ख़ूंरेज़ कुहनियां हैं और घुटने छिले हुए
लहरों में कैसी आग है इस बार नाख़ुदा
साहिल को लौटते हैं सफ़ीने जले हुए
आते हैं चाराग़र यहां लेकिन तवाफ़ को
ख़ुद ही कुरेदें जख़्म क्या नश्तर मिले हुए
जलसानगर में आपका फिर ज़िक्र आ छिड़ा
साज़ों पे उंगलियों के जवां हौसले हुए
जी चाहता है तोड़ दें हर क़ैद उनकी आज
दिखते हैं जालियों से गुलेतर खिले हुए
मधुबन की झील में इन्हें धोएं जतन से गुल
सहरा से आए हैं क़दम बरसों चले हुए
_____________
दिलीप शाक्य
आंखों से भी बयां न हमारे गिले हुए
कोहे-गिरां को ठेलना मुमकिन तो है मग़र
ख़ूंरेज़ कुहनियां हैं और घुटने छिले हुए
लहरों में कैसी आग है इस बार नाख़ुदा
साहिल को लौटते हैं सफ़ीने जले हुए
आते हैं चाराग़र यहां लेकिन तवाफ़ को
ख़ुद ही कुरेदें जख़्म क्या नश्तर मिले हुए
जलसानगर में आपका फिर ज़िक्र आ छिड़ा
साज़ों पे उंगलियों के जवां हौसले हुए
जी चाहता है तोड़ दें हर क़ैद उनकी आज
दिखते हैं जालियों से गुलेतर खिले हुए
मधुबन की झील में इन्हें धोएं जतन से गुल
सहरा से आए हैं क़दम बरसों चले हुए
_____________
दिलीप शाक्य
जी चाहता है तोड़ दें हर क़ैद उनकी आज
जवाब देंहटाएंदिखते हैं जालियों से गुलेतर खिले हुए....बहुत खूब...........