11 मार्च 2014

ग़ज़ल

मेरे कहने में न आया कभी कहना उसका
किसी ख़ामोश परिन्दे सा था सहना उसका

तंज की बात थी मैंने जिसे इल्ज़ाम सुना
रात भर नींद में गड़ता रहा हंसना उसका

साथ चलने नहीं देता है ज़माना हमको
मेरे गिरने का सबब ले है संभलना उसका

यूं ही बस चाल में ख़म देखके ठहरा हूं मैं
मेरे रुकने का इशारा नहीं चलना उसका

कितने परवाने फ़ना होने को घर से निकले
हाय उस रात में तफ़सील से जलना उसका

देखना खाक़ न कर दे ये तेरा जलसानगर
मेरे सीने में लहू बन के धड़कना उसका

बांधकर ज़ुल्फ को परचम कोई लहराते हुए
देख सड़कों पे ख़ुदा बनके उतरना उसका
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 दिलीप शाक्य]

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