1 अक्तूबर 2014

ब्रीफ़ एन्काउंटर: एक संक्षिप्त लव-अफ़ेयर [आठवीं क़िश्त]

मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी सिनेमा-स्तंभ जलसाघर  से




‘ब्रीफ़ एनकांटर’ एक ब्लैक एंड व्हाइट ब्रिटिश फ़िल्म है। 1946 में निर्मित। यह फ़िल्म डेविड लीन की निर्देशकीय प्रतिभा का अद्भुत शाहकार है। फ़िल्म की कहानी निऑल कॉवर्ड के 1936 के मशहूर नाटक ‘स्टिल लाइफ’ का ही सिनेमाई रूपांतर है। निऑल कॉवर्ड इस फ़िल्म के निर्माता भी थे। ब्रिटिश समाज में इस फ़िल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1999 में एक ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए पोल के आधर पर इस फ़िल्म को ब्रिटेन की दूसरी सबसे लोकप्रिय फ़िल्म घोषित किया गया था। 

जिस समय डेविड लीन यह फ़िल्म शूट कर रहे थे वह दूसरे विश्वयुद्ध का आख़िरी महीना था यानी कि पूरा विश्व जिस समय युद्ध की आग में जल रहा था डेविड लीन ब्रिटेन के मध्यवर्गीय समाज में सांस ले रहे दो विवाहित अजनबियों के निश्छल प्रेम की सात बेबस मुलाकातों की कथा कह रहे थे। ये सारी मुलाकातें मिलफोर्ड जंक्शन नाम के एक काल्पनिक सब-अर्बन रेलवे-स्टेशन पर घटित होती हैं। फ़िल्म की नायिका लौरा जेस्सन /[अभिनेत्री सिलिया जोन्सन] एक मध्यवर्गीय हाउस-वाइफ़ है और फ़िल्म का नायक एलेक हार्वे [अभिनेता ट्रिवर हॉवर्ड] एक कंसल्टेंट डॉक्टर है। फ़िल्म दोनों की आकस्मिक मुलाक़ात से जन्मे निश्छल प्रेम से शुरू होती है जिसे बाद में लौरा जेस्सन के अपराध-बोध की भावना एक करुण अंत में बदल देती है। कुल मिलाकर यह दो अजनबियों के मिलने और बिछड़ने की एक सुन्दर करुण प्रेम-कथा है। यह फ़िल्म ब्रिटेन के अलावा अमेरिका में भी बहुत लोकप्रिय थी सिलिया जोन्सन को सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए अकेडेमी अवार्ड से सम्मानित किया गया था। वैसे ट्रिवर हॉवर्ड ने भी एक स्मार्ट यंग डॉक्टर के रूप में अत्यंत सधा हुआ अभिनय किया है जबकि यह उनकी पहली ही फ़िल्म थी। 

चंूकि 1946 का समय ब्रिटेन में दूसरे विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों का समय है तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि पूरी फ़िल्म के परिवेश में दूसरे विश्वयुद्ध की त्रासदी के निशान नहीं हैं। ट्रेनें समय पर चल रही हैं। यात्रियों के बीच युद्ध की चर्चाएं नहीं हैं। चॉकलेटें बिना कूपन के ख़रीदी जा रही हैं। हांलाकि नियोल कॉवर्ड के नाटक ‘स्टिल लाइफ’ का कथानक 1935 की ब्रिटिश लाइफ पर आधारित है फिर भी निर्देशक डेविड लीन ने फ़िल्म की कहानी को तीसरे दशक के उत्तरार्ध में स्थित दिखाया है। वैसे फ़िल्म की कहानी को युद्ध के प्रभाव से कितना ही बचाया गया हो लेकिन डेविड लीन ने इसे एक दुख भरी करुण प्रेम-कथा के रूप में चित्रित कर 1946 के समय के साथ जोड़ ही दिया है। 

फ़िल्म को लौरा जेस्सन के आत्मकथात्मक नैरेटिव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लौरा जेस्सन क्रॉसवर्ड पज़ल सॉल्व करते अपने पति के सामने बैठी है और डॉक्टर ऐलेक के साथ हुयी अपनी संक्षिप्त मुलाकातों को याद कर रही है ऐसा आभास देते हुए कि जैसे उन मुलाकातों की स्मृति उसकी ग़लतियों का आत्म-स्वीकार हो। ठीक किसी कन्फेसन बॉक्स की तरह। 

इसी तरह लौरा जेस्सन और एलेक की संक्षिप्त प्रेम-कहानी एक इन्टेंस दर्द से भरे रोमानी विवरणों के साथ खुलती जाती है। कहानी मिलफॅार्ड जंक्शन पर एक्सप्रेस ट्रेन के आगमन से शुरू होती है। जंक्शन से गुजरती ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर देखते हुए लॉरा जेस्सन की आंख में कोई तिनका चला आता है। वह रेल्वे-स्टेशन के रिफ्रेशमेंट रूम में आती है जहां एक अजनबी अपने रुमाल से बहुत सहजता से लौरा की आंख का तिनका निकाल देता है। यह अजनबी ही डॉक्टर एलिक है। आगे डॉक्टर एलिक और लौरा जेस्सन हर थर्सडे को रिप्रफेशमंेट रूम में मिलते हैं। 

उस समय के ब्रिटिश समाज की अन्य संभ्रांत महिलाओं की तरह लौरा जेस्सन भी हर थर्सडे अपने घर से दूर इस इस सबअर्ब टाउन की रेल-यात्रा करती है। लाइब्रेरी की किताबें वापस करते हुए, शॉपिंग करते हुए, लंच करते हुए और पिक्चर देखते हुए अपनी पसंद का एक दिन बिताती है। डाक्टर एलिक इस सबअर्ब टाउन के एक हॉस्पिटल में कंसल्टेंट डॉक्टर है जो हर थर्सडे ट्रेन से यहां आता है। लौरा जेस्सन और ऐलेक दोनों की ट्रेनें परस्पर विपरीत दिशाओं में आती-जाती हैं। आगे दोनों की इन साप्ताहिक थर्सडे मुलाकातों को निर्देशक ने रेल्वे-रिफ्रेशमेन्ट रूम में चाय पीते हुए, रेस्तरां में लंच करते हुए, थियेटर हॉल में पिक्चर देखते हुए, एक निकटस्थ गांव की ख़मोशी में टहलते हुए और ऐलेक के एक दोस्त के अपार्टमेट में मिलते हुए एक सुन्दर प्रेम-कथा के रूप में विन्यस्त किया है। 

फ़िल्म में अनेक ऐसे दृश्य हैं जो दर्शक को भीतर तक छू जाते हैं और लौरा और एलिक के लिए भावुक कर जाते हैं। फ़िल्म में लौरा की स्थिति उस समय के ब्रिटिश समाज की स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। 1940 के आस-पास जब दूसरे विश्वयुद्ध का समय था तो युद्ध की परिस्थिति को देखते हुए महिलाओं को घर से बाहर काम करने की स्वतंत्रता हासिल हो गयी थी लेकिन सामाजिक दायरों में इस स्वतंत्रता को बहुत स्वागतयोग्य नज़र से नहीं देखा जाता था। फिल्म में यह स्थिति क्रोसवर्ड सॉल्व करते लौरा के पति, अपने अपार्टमेंट में एलिक को अपमानित करता उसका देास्त, और पार्क की बेंच पर सिगरेट पीती लौरा को घर जाने की सलाह देते सिपाही के व्यक्ति-प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट की गयी है। 

डेविड लीन ने इस फ़िल्म में उस समय के समाज में संकीर्ण और मुक्त जीवन-दृष्टि के फ़र्क को साफ-साफ दिखाया है। यह बात एक स्वाभाविक प्रेम में बंधे एलिक और लौरा के दृष्टिकोणों से भी स्पष्ट होती है। एलिक लौरा के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार है लेकिन लौरा चाहते हुए भी अपने आप को एलिक के लिए तैयार नहीं कर पाती। उसका पारिवारिक और सामाजिक दायित्वबोध उसकी प्रेमानुभूति को गहरी टीस और दर्द से भर देता है। एलिक के लिए लौरा के मन में टीस और दर्द की यह अनुभूति रिफ्रेशमेंट-रूम में उनके अंतिम विदा क्षण के समय और टेªन के कंपार्टमेंट में लौरा की एक परिचित डॉली मेस्सिटर की आकस्मिक उपस्थिति और उसके निरंतर बात करते जाने के समय बहुत सा़फ-साफ़ उभर कर आती है। डॉली जब उसकी हताश स्थिति को देखते हुए कांउटर से उसके लिए ब्रांडी लेने को उठती है। ठीक उसी समय लौरा भागकर प्लेटफार्म पर जाती है और आती हुई एक्सप्रेस ट्रेन को इतने क़रीब से देखती है कि दर्शक को भ्रम होता है कि वो कहीं खुदकुशी तो नहीं करना चाहती थी। यहां अंतिम विदा के क्षण दोनों के प्रेम की उॅचाई को रेखांकित करता एक संवाद याद आ रहा है। 

एलिक: कुडन्ट आई राइट यू। जस्ट वन्स इन ए व्हाइल?
लौरा: नो एलिक प्लीज़। यू नो वी प्रोमिस्ड। 
एलिक: ओह, माई डियर। आई लव यू सो वेरी मच। आई लव यू विद ऑल माई हार्ट एंड सोल।
लौरा: आई वान्ट टू डाइ। इफ ओनली आई कुड डाइ। 
एलिक: इफ यू डाइ। यू वुड फोरगेट मी। आई वान्ट टू बी रिमेम्बर्ड।
लौरा: यस। आई नो। आई डू टू। 

डेविड लीन ने इस छोटे-से प्रेम-प्रसंग में जिस गहरे ऐन्द्रिक संवेदन के साथ लौरा जेस्सन के चरित्र को गढ़ा है वह प्रेम की कोमल और अश्प्रश्य भावना का अमर चित्रण है। बाद के वर्षों में केविन ब्रोनलो नाम के एक नामी फ़िल्म संग्राहक ने डेविड लीन के जीवन के एक प्रेम-प्रसंग को खोज निकाला जो लौरा जेस्सन के चरित्र की वास्तविक प्रेरणा थी। वह जो किर्बी/जोज़ेफ़ीन किर्बी/ थी जो चैशायर की रहने वाली थी और 1935 में डेविड लीन के साथ एक रोमेंटिक ट्रिप पर इटली गयी थी। यह एक संक्षिप्त अफेयर था जो शीघ्र ही समाप्त हो गया। जो किर्बी का 1979 में निधन हो गया। डेविड लीन के साथ इस संक्षिप्त प्रेम-प्रसंग को अपने पुत्र की पत्नी कैटरीन के अलावा उन्होंने कभी किसी से शेयर नहीं किया। कैटरीन के मुताबिक जो किर्बी हमेशा कहा करती थीं ‘‘ही वाज़ द लव ऑफ माई लाइफ, एंड आई नेवर गॉट ओवर इट’’।

लौरा और एलिक की अद्भुत प्रेम-कथा के बहाने जो किर्बी और डेविड लीन के संक्षिप्त लव-अफेयर को अमर बनाती यह फ़िल्म इस माइने में भी अहम है कि यह शायद एकमात्र फ़िल्म है जो अपनी आवयविक संरचना में किसी प्रेमकहानी को इतने पैशन के साथ रेलों के संसार से जोड़ती है। लौरा और ऐलिक की मनःस्थितियों को ट्रेन की सीटी, एनाउन्समेंट, प्लेटपफॉर्म, रिफ्रेशमेंट रूम, ट्रैक से उठता रेल का धुआं, ट्रेन के दरवाज़ों के खुलने-बंद होने की आवाज़ आदि बिम्बों के माध्यम से बहुत ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। इसके अतिरिक्त इसका सबसे अहम पक्ष इसका संगीत है। महान रूसी संगीतकार रैश्मनिनोफ़ की सिम्फनी पियानो कंसर्टो न. 2 को एलिक और लौरा के मनोभावों से इस कदर अटैच्ड रखा गया है कि उनकी ख़ामोशी भी दर्शक को बोलती हुई लगती है। रैश्मनिनोफ की महान संगीत-रचना इस पिफ़ल्म में धड़कन की तरह बजती रहती है।


हांलाकि 1974 में इस फ़िल्म का एक रीमेक भी एलिन ब्रिज ने बनाया था। लौरा की भूमिका सोफिया लोरेन ने की थी और एलिक की रिचर्ड बर्टन  ने, लेकिन तमाम आध्ुनिक रंग-रोगन और स्टार-कास्ट के बावजू़द एलिन ब्रिज का प्रयास प्रभावित नहीं करता। डेविड लीन की दृष्टि का कोई जवाब नहीं। 
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दिलीप शाक्य, जलसाघर , in sept issue of yudhrat aam aadmi, a literary monthly
9868090931

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