पानी नहीं था
पानी की परछाईं थी महज़
मैंने ख़ूब ख़ूब
बहुत ख़ूब टटोलकर देखा
प्यास के जिस्म में जान नहीं थी
प्यास की परछाईं थी महज़
जो पानी की परछाईं के
घुटनों पर झुकी थी
धरती के सीने से
रिस-रिस कर फूट रहा था
आंसुओं का एक नमकीन सोता
_______________
दिलीप शाक्य
पानी की परछाईं थी महज़
मैंने ख़ूब ख़ूब
बहुत ख़ूब टटोलकर देखा
प्यास के जिस्म में जान नहीं थी
प्यास की परछाईं थी महज़
जो पानी की परछाईं के
घुटनों पर झुकी थी
धरती के सीने से
रिस-रिस कर फूट रहा था
आंसुओं का एक नमकीन सोता
_______________
दिलीप शाक्य
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें