23 जनवरी 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


शहर में है मग़र मुझसे कभी मिलता नहीं वो 
रकीबों तक से मेरे नाम पर खुलता नहीं वो 

पलटता है मग़र कुछ इस तरह जैसे खफ़ा हो 
मिलाकर हाथ चल देता है कुछ कहता नहीं वो 

न जाने बाग़ में गुलचीं ने क्या बुलबुल को समझाया 
कि आआ के पलट जाती है रूत, खिलता नहीं वो 

ज़रा सी शाख़ लचकी थी बस इतनी बात पर ही 
तड़पकर इस तरह टूटा कि अब जुड़ता नहीं वो 

यहां दिन रात बहता था जो दरिया खो गया है 
सितारों तक भटकता हूं, कहीं दिखता नहीं वो 

वो पलकों में दबाकर मेरा चेहरा सो गया है 
जगाता हूं अधूरे ख़्वाब सा, उठता नहीं वो 

ये मेरा दिल अब उसका मक़बरा है सैर को आओ 
बिछी है घास रौंदो उसको कुछ कहता नहीं वो 
 

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस गज़ल के लिए ज्यादा शब्द कहना व्यर्थ है ।तथा कम शब्दों में इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता है।बहुत ही उम्दा एवम हिरदय ग्राहित रचना है ।इसे पढ़ते हुए बरबस ही गोपालदास की यह पंक्ति याद आती है "वीरह रो रहा है मिलन ग रहा है किसे याद कर लू किसे भूल जाऊ।" थोडाचलताऊ अंदाज में कहु तो इस गज़ल को सुनकर सिपाही अपनी तलवार बादशाह अपना मुकुट ओंर आम इन्सान अपना दिल निकालकर इस नगमा निगार के कदमो में रख दे ।निजी अनुभव से ओत प्रोत होने के कारण यह गज़ल इतना उम्दा हो सका है ।

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