23 दिसंबर 2012

लम्बी कविता ‘गुलाब की पत्तियां और कैंची’ से एक अंश


तो क्या हुआ कि आज अपनी ही सलवटों में लिपटे हुए 
परचमों को 
बहुत क़रीब से देख रहा हूं मैं 
किसी पार्टी-वर्कर की तरह 
हवा के रुख़ पर शर्मिंदा होता हुआ 

तुम्हें भी तो देख रहा हूं मैं तुम्हारी ही तरह
मेरी हमनफ़स
हवा के रुख़ को कई-कई दिशाओं में मोड़ते हुए बे-खौफ़
तोड़ते हुए भीतर की मजबूत श्रंखलाएं
कड़ी-दर-कड़ी
तुम अभूतपूर्व लग रही हो मेरे भीतर और बाहर खड़ी
चैलेंज-सी...

(दिलीप शाक्य)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें