9 अगस्त 2010
दहक
मेरी और तुम्हारी आंख का पानी
बन सकता है सीने की आग
ज़रा सोचो
आओ बैठो
इस बुझी हुयी राख में कुरेदें
फिर किसी ख़्वाब की दहक
तो क्या हुआ कि गूंगे हैं
चीखें फिर भी लगाकर ज़ोर
क्या पता दरक ही जाए
यह आलीशान कांच की दीवार
(दिलीप शाक्य)
2 टिप्पणियां:
परमजीत सिहँ बाली
9 अगस्त 2010 को 9:17 pm बजे
बहुत सुन्दर!!
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kuchkahu
27 अगस्त 2010 को 9:43 am बजे
तो क्या हुआ कि गूंगे हैं
चीखें फिर भी लगाकर ज़ोर
yahi to baat nirali hai
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बहुत सुन्दर!!
जवाब देंहटाएंतो क्या हुआ कि गूंगे हैं
जवाब देंहटाएंचीखें फिर भी लगाकर ज़ोर
yahi to baat nirali hai