9 अप्रैल 2014

ग़ज़ल

हर एक सिम्त से मुझमें समा रहे हो तुम
नदी के जल में भंवर सा बना रहे हो तुम

मुझे भी दो वो हुनर दिल में रह सकूं मैं भी
जला के मुझको नज़र में बुझा रहे हो तुम

मैं एक मौज़ हूं फिर नालाकश समन्दर में
उफ़क को फिर मेरा साहिल बता रहे हो तुम

ऐ चांद तुम भी किसी बज़्म में जले हो क्या
ये किसकी नज़्म है तारों में गा रहे हो तुम

क़रीब आओ तो सच झूठ का पता पाउं
ये क्या कि दूर से बातें बना रहे हो तुम

हवा का रुख़ तो मेरे आशियां की जानिब है
ये किस दिशा में क़दम आजमा रहे हो तुम

मैं जुगनुओं से सजा दूंगा आसमां को कल
बशर्ते आज वहां गुल खिला रहे हो तुम

मैं फिर गुलों से मुख़ातिब हूं तितलियां लेकर
मैं जानता हूं कि फिर मुस्कुरा रहे हो तुम

सुबह के हाथ में ख़ंजर न हो कहीं देखो
गिरा के रात का पर्दा उठा रहे हो तुम

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दिलीप शाक्य]

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