3 जनवरी 2014

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य

टूटे हुए दिलों की आवाज़ फिर जवां है
जलसानगर में यारो इक सिंफ़नी रवां है

बोसों के फूल अब भी सीने में खिल रहे हैं
मैं बाग़ में खड़ा हूं वो गुलमोहर कहां है

बाज़ार खुल गया है और जेब भी भरी है
बोलो तो दाम पूछूं दिल की भी इक दुकां है

कोहरा छंटे तो देखूं रंगीं सुबह का जादू
शब की गुज़ारिशों का क्या रंग आसमां है 

जुल्फ़ें तुम्हारी कितनी पुरपेंच हो गयी हैं
इनमें किसी सियासत का फिर मुझे गुमां है

है दर्द ग़र नदी सा दिल भी तो हो समंदर
किश्ती सा हूं भंवर में दरिया ये बेकरां है

सज़दा करुं मैं क्योंकर मुंह फेरकर खड़े हो
मेरा भी कोई आख़िर अंदाज़ है बयां है

2 टिप्‍पणियां:


  1. 3 जनवरी 2014
    ग़ज़ल / दिलीप शाक्य
    टूटे हुए दिलों की आवाज़ फिर जवां है
    जलसानगर में यारो इक सिंफ़नी रवां है

    बोसों के फूल अब भी सीने में खिल रहे हैं
    मैं बाग़ में खड़ा हूं वो गुलमोहर कहां है

    बाज़ार खुल गया है और जेब भी भरी है
    बोलो तो दाम पूछूं दिल की भी इक दुकां है

    कोहरा छंटे तो देखूं रंगीं सुबह का जादू
    शब की गुज़ारिशों का क्या रंग आसमां है

    जुल्फ़ें तुम्हारी कितनी पुरपेंच हो गयी हैं
    इनमें किसी सियासत का फिर मुझे गुमां है

    है दर्द ग़र नदी सा दिल भी तो हो समंदर
    किश्ती सा हूं भंवर में दरिया ये बेकरां है

    सज़दा करुं मैं क्योंकर मुंह फेरकर खड़े हो
    मेरा भी कोई आख़िर अंदाज़ है बयां है

    बहुत सशक्त गज़ल। हर अशआर शानदार।

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