6 मई 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


ग़ुन्चा कहा करुं कभी नश्तर कहा करुं
क्योंकर मैं तेरी सेज को बिस्तर कहा करुं

जो आया तेरे नैन की जुम्बिश पे मर गया
रक़्क़ासां तुझको ज़िदगी क्योंकर कहा करुं 

आवागमन बना रहे, दिल के मकां को तू
मसजिद कहा करे तो मैं मंदिर कहा करुं

दिल की उड़ी जो ख़ाक तो ये आस्मां बना
तारों में जा बसा जिसे दिलबर कहा करुं

तारे दिखा रही है थका कर मुझे ये रात
ऐ चांद अब भी क्या तुझे रहबर कहा करुं

लो फिर ज़मीं पे आ गिरी दस्तार चांद की
सूरज को यानी फिर मैं सिकंदर कहा करुं 


फंसकर तेरे निज़ाम के चक्कों में जां गई 

इक जिस्म है बचा जिसे पिंजर कहा करुं


जंगल तमाम छान लिया घर की खोज में
कोई शहर मिले जिसे मैं घर कहा करुं 

आए रदीफ़ लेकर, कोई काफ़िया नया 
कब तक उसी ग़ज़ल को मुक़र्रर कहा करुं 

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