12 मार्च 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


खड़े हैं धूप में पर छांव से गिला भी नहीं 
बिखर गया जो सफ़र में वो काफ़िला भी नहीं 

तमाम शहर को अपना बना लिया, वैसे 
हमारा नाम था जिसपे वो घर मिला भी नहीं

बहुत से लोग हैं हम भी हैं क्या नया इसमें 
यूं चल रहे हैं गो चलने का सिलसिला भी नहीं

हमें चिनार की वादी में ले चलो फिर से
वहीं पे दिल को बुझा दें जहां जला भी नहीं

रकीब होगा किसी रोज़ अब तो मेहमां है
बुरा भी कैसे कहें उसको गो भला भी नहीं

बहुत खफ़ीफ़ है लहजा तुम्हारी बातों का
कहूं तो कैसे कहूं दिल में हौसला भी नहीं

ये कैसे सींच रहे हो शज़र को आंखों से
बदन की शाख़ पे देखो लहू खिला भी नहीं

जो मेरी आंख से गुज़रा है बरहना गुज़रा
लिबास ढ़ूढ़ रहा हूं वो जो सिला भी नहीं

वहां भी तेरा ख़लल है सुना गया है कोई
शहर हमारा नहीं है तो क्या ख़ला भी नहीं

तलाश कैसे किया जाए कुछ सुराग तो हो
वो खो गया है जो हमसे कभी मिला भी नहीं
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