2 मार्च 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य

हर इक मुक़ाम पे पैकर बदल रही है तू
है किसकी सांस ज़माने से चल रही है तू

तुझे बना के ज़माने ने ख़ुद पे रश्क़ किया
मिटा के ख़ुद को ज़माना बदल रही है तू

सजा के मोर मुकुट सिर पे, बांसुरी छेड़े
अजीब ढंग से मधुबन को छल रही है तू

फिरुं मैं रात के जंगल में अपना चांद लिए
शहर में सुब्ह की सूरत निकल रही है तू

खड़े हैं लोग तेरी रहगुज़र में संग लिए
है जिस्म ख़ून से तर फिर भी चल रही है तू

बहुत नयी है पुरानी भी है ख़लिश तेरी
हरेक शख़्स की आंखों में जल रही है तू

ख़ुदा की ख़ल्क है गर तू मैं तेरी ख़ल्क रहूं
मुझे संभाल के ख़ुद भी संभल रही है तू

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