25 फ़रवरी 2013

ग़ज़ल/ दिलीप शाक्य

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या मेरे ख़्वाब की दुनिया मुझे नवाज़ करो
या ख़ुद को अपनी निगाहों में शर्मसार करो
 
ये किसकी आंख का मंज़र मुझे दिखाते हो 
मैं बाज़ आया मनाज़िर मेरे बहाल करो
 
तुम्हारे अहद की तस्वीर बन नहीं सकता
ख़ुदा के वास्ते वापस मुझे किताब करो
 
क्यों इश्तहार की सूरत लुभा रहे हो मुझे
छिपा है दिल की तहों में जो राज़ फ़ाश करो
 
मैं घर में आया हूं जबसे उदास बैठे हो
न अपने आपको मुझसे यूं बेनियाज़ करो
 
ये नीम नीम उजाला मुझे क़ुबूल नहीं
चराग़ जलता है कम कम इसे मशाल करो
 
हमारे तर्ज़े-बयां पर जो हंस रहे हो बहुत
तो आओ आग को पानी गुलों को ख़ार करो
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