डुबो के ख़ून में धागे रफ़ू लिबास किया
यूं हमने जिस्म को फिर जां से रूशनास किया
उलझ रहे थे जो रेशे जुदा जुदा होकर
सुलझ रहे हैं इन्हें जब से पास-पास किया
वो बात बात पे रेशम का ख़्वाब बुनता था
मैं अपने चरखे पे क़ायम रहा कपास किया
मेरी कबीर से, ग़ालिब से, आशनाई है
गिला नहीं जो मुझे तूने नाशनास किया
जो इसमें आता है सूरत बदल के जाता है
ये क्या बनाया है तूने ये क्या क़यास किया
तमाम शहर को बाज़ार कर दिया पहले
फिर अपने आप से पूछा कहां निवास किया
मैं घर को लौट के अक्सर हिसाब देता हूं
सफ़र में किसको हंसाया किसे उदास किया
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खूब शेर कहे हैं भाई. अच्छी लगी ग़ज़ल. बधाई!
जवाब देंहटाएंbahut badiya likha hai..
जवाब देंहटाएंshukriya...
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