16 फ़रवरी 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


लगे जो आंख को झपकी जगा दिया जाए
रूके जो ख़्वाब का चरखा चला दिया जाए 

मना रहा हूं सहर को नए सफ़र के लिए
गुज़िश्ता रात का हर दुख भुला दिया जाए

जो दिल जला है इधर से उधर उजाला क्यों 
ये दरमियान का पर्दा गिरा दिया जाए

ज़माना सख़्त है जालिम से गुफ़्तगू कैसी
सितम को रेत की सूरत उड़ा दिया जाए

दरख़्त अपनी जड़ों को लपेटे फिरते हैं
हमारे शहर का जंगल बसा दिया जाए

ये रास्ता भी उसी घर के सिम्त जाता है
इसे भी आज गुलों से सजा दिया जाए

उठा रहा हूं वही बात फिर नए रुख़ से
हुजूमे-शहर को वापस बुला दिया जाए

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