15 अगस्त 2010

शहरयार की शायरी का शहर और हम

यह उन दिनों की बात है जब मैं झीलों के शहर भोपाल में साइकोलॉजी  आनर्स की पढ़ायी कर रहा था। वहॉं कुछ हमख़याल दोस्तों के साथ एक छोटी सा ‘ग्रुप’ बन गया था। हम सब तक़रीबन एक जैसे बैकग्राउंड से आये थे। हम उस मिडिल क्लास सिंड्रोम के शिकार थे जिसकी वजह से हजारों नौजवान अपने खुशहाल कस्बों को छोड़कर शहर के दिलफरेब कल्चर की ओर भाग रहे थे। यह भारत में लिबरलाइजेशन,प्राइविटायजेशन और ग्लोबलाइजेशन के शुरूआती दिन थे। हम सब कस्बों के स्कूल से पढ़कर आये थे। स्कूल की पढ़ायी हमारे लिये एक किस्म का ‘फ्रीडम स्ट्रगल’ थी क्योंकि उसी के बाद हमें अपने सपनों का ‘स्वराज’ मिलने वाला था। हमारे जेहनों में उस शहर का ख़ाका तैयार हो चुका था जिसे हमने अपने लिये कॉमिक्स की दुकानों पर बिकने वाले जासूसी नॉविलों,खराब क्वालिटी के सिनेमाघरों में लगने वाली फ़िल्मों, केबल टेलीविजन के जरिये प्राप्त हो रहे नित नये देशी-विदेशी टीवी कायक्रमों और रंगीन पत्रिकाओं के आकर्षक चित्रों में खोजा था। लेकिन हम जिस शहर में थे उसका नक्शा हमारे ख़्वाबों के शहर से मेल नहीं खाता था। फिर भी हमें शहर को देखकर घर याद नहीं आया,हम तो तमन्ना का दूसरा क़दम ढूढ़ रहे थे। हमने शहर में कुछ ठिकाने ढूढ़ निकाले थे जहां हम अक्सर मिला करते और अपनी बेचैनियां शेयर करते। इनमें एक पब्लिक लाइब्रेरी,एक कॉफी हाउस,एक छप्पर वाला चायघर,नाटकों के रिहर्सल के लिये मुफीद एक वीरान टीला और एक दोस्त का घर अहम थे। दोस्त की चश्मों की दुकान थी और उसे ग़ज़लें सुनने का बेइंतहां शौक़ था, इस क़दर कि उसके एक बेड का पूरा स्टोरेज ही ग़ज़लों के ऑडियो कैसेटों से भरा था। एक दिन उसने हमें एक इंपोर्टेड सी डी प्लेयर दिखाया जिसका कि हमने केवल नाम ही सुन रखा था। उस प्लेयर पर आशा की दिलकश आवाज़ में जो पहली ग़ज़ल हमने सुनी वो शहरयार की ग़जल थी-

                                         जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
                                         इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने

इस ग़ज़ल को सुनते हुये हमें दो तरह के अहसास हुये। एक तो गालिब का वह मशहूर शेर ‘कुरेदते  हो जो अब राख जुस्तजू क्या है’ याद आया जिसे हमने ’मिर्ज़ा ग़ालिब’ नाम के टी वी सीरियल में जगजीत सिंह की आवाज़ में सुना था। दूसरा, ‘उमराव जान’ का वह सीन याद आया जिसमें फ़िल्म के आखि़र में उमराव फैजाबाद में अपने छूटे हुये घर की जानिब लौटकर आती है और साज़ पर यह ग़ज़ल बजती है-

                                        ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
                                        हदे-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है

                                        बुला रहा है मुझे कौन चिलमनों के उस तरफ
                                        मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है

उमराव जान की तरह हमें भी चिलमनों के उस तरफ किसी उदास बेक़रार दुनिया की तलाश थी। यह तलाश हमें शहरयार और उर्दू के कुछ और मशहूर शायरों की तरफ ले गयी। उस वक्त तक उर्दू शायरी हमारे लिये आशिक और माशूक के रोमांटिक चक्कर से अधिक कुछ नहीं थी जिसमें बेचारे आशिकों को बहुत पापड़ बेलने पड़ते थे और माशूक मज़े में रहते। ये और बात है कि बाद के दिनों में अक्ल का दायरा कुछ और वसीय हुआ और कुछ उर्दू दां दोस्तों और कुछ लाइब्रेरियों की बदौलत उर्दू शायरी की बाक़ायदा रवायत का थोड़ा बहुत इल्म हासिल हो गया और आगे जाकर उसी इल्म की रौशनी में शहरयार के मजमुए ’ख़्वाब का दर बंद है’को कुछ और संजीदगी के साथ पढ़ा। .....ज़ल्द ही वह ग्रुप बिखर गया और नौकरी और अपनी जुस्तजू के शहर ढूढ़ते ढूढ़ते हम सचमुच के शहरों की जद्दोजहद भरी ज़िंदगी से दो चार हुये। तभी हमें शहरयार की शायरी में फैले शहर के असली मायने समझ में आये और इस तरह अपने ख्वाबों का शहर न ढ़ूढ़ पाने की हमारी मायूसी और शहरयार की शायरी में फैले शहर की खामोशी के दरम्यान एक ख़ास रिश्ता बन गया।

शहरयार की शायरी में मौज़ूद ‘शहर’  का एक सिरा ‘घर’  से बंधा हुआ है तो दूसरा सिरा ‘सहरा’ की सिम्त रवां है। उनकी शायरी में हमें एक ऐसा क़िरदार दिखाई देता है जो इन दोनों सिरों के दरम्यान एक लंबे सफर पर रवाना होना भूल गया है:

                                        एक एक करके सब रस्ते सुनसान हुये
                                        याद आया मैं लंबे सफर पे जाने वाला था

शहरयार की शायरी का क़िरदार ‘वह’ नहीं जिसे गालिब की शायरी में ‘दश्त’ की वीरानी देखकर ‘घर’ की वीरानी याद आती है, ‘वह’ तो ‘घर’ की वीरानी छोड़कर ‘शहर’ के नक्शे’ में भटकता है। उसे शाम होते ही शहर की तलब उठने लगती है-

                                         शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
                                         सोचता रोज़ हूं मैं घर से नहीं निकलूंगा

शहर उसके लिये एक पनाहगाह की तरह है लेकिन उसके पीछे अपनी मर्जी का घर न बना पाने की गहरी कसक है। इस कसक में अपनी ज़मीन से उखड़ जाने का दर्द भी साफ दिखाई देता है -

                                         घर की तामीर तसव्वुर में ही हो सकती है
                                         अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है‘‘

फिर एक दूसरे शेर में यह भी नामुमकिन लगता है-

                                          घर की तामीर तसव्वुर में भी नामुमकिन है
                                          दिल ने नक्शा ही बना रखा है घर का ऐसा‘‘

घर के इस नक्शे की तामीर जिस जगह मुमकिन है क्या वह जगह ‘सहरा’ है क्यों कि वहां से शायर के किरदार को बुलावे आते हैं और क्या पता वहां नक्शे के मुताबिक जमीं भी कम न हो

                                         आओ बैठो कुछ करें सहरा की जानिब चलें
                                         बैठे बैठे थक गये साये में दीवार के

                                         फिर बुलाया है हमें दश्ते-फरामोशी ने
                                         कोई आमादा है क्या साथ में चलने के लिये

                                         चलो जंगलों की तरफ फिर चलो
                                         बुलाते हैं फिर लोग बिछड़े हुये

साफ है कि शहर की अजनबियत में शायर घर के पुराने ख्वाब को भूला नहीं है। इसलिये वह सहरा की तरफ तन्हा नहीं जाना चाहता। लेकिन यह भी एक आयरनी है कि घर की तामीर की तरह सहरा का सफर भी आसान कहां? शहर की ज़ंजीर से वह इस क़दर बंधा है कि निज़ात मुमकिन नहीं।

                                        चाहा था कि दश्त को गुलजार कर सकूं
                                        मेरे बदन में खून तो था इतना खूं न था’’

                                        मुझको रहना था इसी शहर की गलियों में असीर
                                        मेरे हिस्से में कहां दश्त की पहनाई थी

शायर के इस अहसास में हर वह आदमी शरीक है जो अपने हिस्से के शहर को पूरी निस्बत और बेगानगी के साथ जीता है। शहरयार ऐसे आदमी के लिये शहर को एक डिफेंस मैकेनिज़्म के रूप में देखते हैं और दश्त के तमाम बुलावों के बावज़ूद शहर उनके लिये एक सुरक्षित पनाहगाह है:

                                        शहर फिर शहर है यां जी तो बहल जाता है
                                        शहर को छोड़कर सहरा में न जा मान भी जा’’

शहरयार की शायरी में शहर की जो तस्वीर उभरती है वह हमें अंदर तक बेक़रार कर जाती है। इस तस्वीर में ओस से भींगी हुयी रातें ही नहीं हैं तपते हुये रेत का सहरा भी है। समंदर से प्यासे लौटने का दर्द है तो दरिया के सामने तिश्नालब रह जाने का मलाल भी है। यह शहर एक नीमख़्वाब रात में जागता शहर है। ऐसा लगता है कि शहरयार का क़िरदार घर से निकाला हुआ है और जिसकी मंज़िल दश्त में है लेकिन मंज़िल से पहले ही वह शहर में भटक गया है:

                                        दश्त में पहुंचे  न घर में आये
                                        किन बलाओं के असर में आये

शहर की इन ‘बलाओं’ में नींद नहीं। ग़ालिब ने इन्हीं शहरों के लिये कहा होगा ‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’। यह शिक़ायत शहरयार की भी है

                                         नींद की ओस से पलकों को भिगोयें कैसे
                                         जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोये कैसे

ऐसे ही शहर की ज़िंदगी का एक खास टोन हमें उस ग़ज़ल में दिखायी दिया जिसे हम तक सुरेश वाडेकर की आवाज़ ने पहुंचाया-

                                         सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यूँ  है
                                         इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ   है

शहर में बसने वाले ये परेशान लोग अपनी पहचान खो चुके लोग हैं। शहर में इंसान के इंसान से अजनबी हो जाने के दर्द को शहरयार जिस इंटेसिटी और बावस्तगी के साथ बयान करते हैं वह बाज शायरों के यहां कम ही देखने को मिलता है-

                                         वो कौन था वो कहां का था क्या हुआ था उसे
                                         सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो

शहरयार की शायरी दरअसल एक आर्टिस्ट तख्लीककार की शायरी है। उनके यहां कुछ ख़ास तरह के रंग, रंगों के स्ट्रोक्स, आकृतियां, छवियां और कुछ ख़ास आवाज़ें हैं जो अपने साथ इंसान की वज़ूदियत और उसकी जिंसी कैफियत को अनेक पुराने और नये सवालों के साथ हमारे रूबरू लाती है। उनकी शायरी के क़िरदार का ‘मैं’निखालिस ‘इंडिविजुयल’ दिखते हुये भी अपने प्रोग्रेसिव सरोकारों से मुंह नहीं मोड़ता। वह अपने दर्द में सबके दर्द को समो लेने की कुव्वत रखता है-

                                    सबका अहवाल वही है जो हमारा है आज
                                    ये अलग बात है शिकवा किया तन्हा हमने


(दिलीप शाक्य)
 

6 टिप्‍पणियां:

  1. sh
    बहुत खूब !

    शहरयार को समझने के लिए यह लेख अहम भूमिका निभाएगा.

    अंग्रेजों से प्राप्त मुक्ति-पर्व
    ..मुबारक हो!

    समय हो तो एक नज़र यहाँ भी:

    आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा : अज़ीमउल्लाह ख़ान जिन्होंने पहला झंडा गीत लिखा http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_14.html

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  2. उम्दा आलेख, आभार.


    स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

    सादर

    समीर लाल

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  3. मध्यमवर्ग नाम ही संघर्ष का है. अपने मूल्यों को बचा के भी रखना चाहता है मूल्यों की सांकलें तोड़ना भी चाहता है...

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  4. जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने Bahut hi badhiya

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