1 अगस्त 2010

नावें

कितनी नमी थी इबारत में
पढ़ते ही भीग गयीं ऑंखें

ऑंखों में फैल गयी झील एक
चल निकलीं यादों की नावें

पानी में पॉंव डाल
बैठा रहा समय किनारे

शाम हुयी खुल गयीं
परिंदों की पॉंखें

नावों से उतरे मुसाफिर
दूर कही खो गये

(दिलीप शाक्य)

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं.
    आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.

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  2. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

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