30 जुलाई 2010

हमारी आग

ये किसके जासूस
छिपकर बैठ गये हैं
हमारे बैठने खाने और सोने के कमरों में

कि हमारी नींद तक से चली गयी है
हमारे दालानों बरामदों और खलियानों की धूप

हमारे पैरों से
खिसकती जा रही है हमारी धरती
हमारी हवा हमारा आकाश हमारा पानी
हमसे हो रहा है दूर लगातार

हमसे छीनकर हमारी आग
किसने रख ली है अपने रेफ्रीजिरेटेड गोदामों में
कि हमारी आत्मा तक में भर गयी है सीलन
अँधेरे में डूब रही है विरोध् में तनी मांसपेशियों की चमक

उठो शिराओं में उबलने दो ख़ून का मिजा़ज
उठो खुलने दो तालू से चिपकी हुयी ज़बान
उठो कि इस बार हम सब मिलकर
छुड़ा लाएं हमारी आग

कि हमारी दुनिया को बहुत तेज़ ज़रूरत है
रौशनी की

(दिलीप शाक्य)

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर कविता और खुबसूरत ब्लॉग के लिए हमारी शुभकामनाएँ.
    आपकी कविता पढ़ कर मुझे कुछ याद आया ,,आप भी सुनिए फिल्म प्यासा का एक यादगार गीत ..मक
    http://www.youtube.com/watch?v=SqqpIR39Y_I

    http://www.youtube.com/mastkalandr

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