2 मई 2014

ग़ज़ल

आंखों में जो गहरा है उसी झील का जल है
जिस झील में डूबा मेरा गुस्ताख़-सा दिल है

घुलती है बड़े नाज़ से पलकों की फ़िज़ा में
होठों की हंसी है या कोई मौसम-ए-गुल है

पेशानी पे ठहरे हुए दरिया की चमक है
माज़ी का रवां जिसमें कोई नीलकमल है

रुख़सार पे संवलाई हुई शाम का जादू
जादू से दमकता वही मासूम सा तिल है

कानों में नए चांद पहनकर वो मिले फिर
क़दमों में सितारों को बिछा देने का दिल है

क्यों शहर में भटकूं मैं तेरी ज़ुल्फ़ खुली है
इसमें मेरी मुश्किल के हर एक पेंच का हल है

जो अक़्स है मेरा वो तेरा ही तो बदल है
आईने से आगे कहां आईने का कल है
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दिलीप शाक्य

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