23 अप्रैल 2014

वीडियो हॉल मतलब छोटे क़स्बों के सिनेमाघर [तीसरी किश्त]

जलसाघर 

Column by dilip shakya on Cinema/Art [मासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ में ज़ारी]



वीडियो हॉल मतलब छोटे क़स्बों के सिनेमाघर [तीसरी किश्त]
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2002 के गुजरात दंगों के बाद टीवी समाचारों में बाबरी विध्वंश के वृत्तांत फिर जीवित होने लगे थे। ऐसे में आनंद पटवर्धन की वृत्तचित्र फ़िल्म ष्राम के नामष् की याद आयी। कई मित्रों को फोन किया कि कहीं सीडी उपलब्ध हो तो देख लें। सीडी तो नहींए हां एक मित्र के पास वीएचएस टेप ज़रूर मिला। लेकिन तब तक शहरों में कम्प्यूटर और सीडी का बाज़ार इस क़दर बढ़ चुका था कि चलन से बाहर हो चुके वीसीआर को हासिल करना असंभव ही हो गया। बड़ा मलाल रहा। इधर लोकसभा चुनाव के मौसम में मोदी की आभासी बहार आयी तो सोचा अब देख ली जाए। झट से गूगल पे गए टाइप किया ष्राम के नामष् और फ़िल्म हाज़िर। यू ट्यूब पर 75 मिनिट की फ़िल्म यूंही बैठे.बैठे देख ली। बिना किसी तैयारी के। बिना किसी को डिस्टर्ब किए। जब चाहा पॉज़ किया जब चाहा रिज़्यूम। यह आज के दौर में सिनेमा देखने का वास्तविक अनुभव है। लेकिन एक ऐसा दौर भी था जब ऐसा सोचना भी एक ख़ामख़याली के सिवा क्या था। 

वह उदारीकरण से पहले का दौर था। टीवी पर ष्हम लोगष् जैसे पारिवारिक सोप ओपेरा के बाद रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक अपार लोकप्रियता हासिल कर चुके थे। घरों की छतों पर लगा टीवी एन्टीना भारतीय मध्यवर्ग की जीवन शैली का नया अलंकरण था। रंगीनध्श्वेत.श्याम टीवी ने इन मध्यवर्गीय घरों के ड्राइंग.रूम में स्थायी सदस्यता प्राप्त कर ली थी। टीवी पर हर सप्ताह दिखाए जाने वाले चित्रहारए फीचर फ़िल्म और सुगम संगीत के कार्यक्रमों ने सिनेमाघरों के बहुत से दर्शक अपनी ओर खींच लिए थे। इस दौर के भारतीय समाज ने एक नयी दृश्य.श्रव्य संस्कृति को आकार लेते देखा जिसे नाम मिला उपभोक्तावाद। भारत के छोटे.बड़े घरों में स्थाई अतिथि सा विराजमान टेलिवज़न सेट इस उपभोक्तावाद का सबसे बड़ा प्रमोटर था। 

फिर वो दौर आया जिसने इस टीवी सेट को एक नए बाज़ार से जोड़ दिया। इस बाज़ार ने पूरी दुनिया के सिनेमा.उद्योग को प्रभावित किया। दृश्य.माध्यमों की दुनिया में यह एक नयी क्रांति थी। टीवी सेट की तरह ही एक और इलैक्ट्रोनिक चमत्कार ने भारतीय बाज़ार में दस्तक दी। इसे वीसीआर कहा गया। इसने ऑडियो कैसेट की लम्बाई और चौड़ाई में उससे दो गुने वीएचएस टेप के माध्यम से टीवी स्क्रीन पर फ़िल्मों अथवा पहले से रिकॉर्डेड वास्तविक वीडियो का प्रदर्शन संभव बनाया। भारतीय बाज़ार में ये वीएचएस टेप जिन्हें ऑडियो कैसेट की तर्ज पर ही वीडियो कैसेट नाम मिला थाए अक्सर टीवी सेट पर फ़िल्में देखने और दिखाने के लिए उपयोग में लाए जाते थे। 

महानगरों और बड़े शहरों मंे जहां पर्याप्त सिनेमाघर थेए टेलिविज़न सेट की यह भूमिका सिर्फ उच्चमध्यवर्गीय घरों तक ही सीमित थी। वहां ऐसे वीडियो पार्लर थे जो रेंट पर फिल्मों के वीडियो कैसेट उपलब्ध करा सकते थे। किन्तु छोटे क़स्बों में जहां न सिनेमाघर थे न ऐसे वीडियो पार्लरए वहां इस भूमिका का निर्वाह वीडियो हॉल कर रहे थे। वीसीआर पर इस प्रकार फ़िल्मेें देखने और दिखाने का एक व्यावसायिक पहलू भी था जिसने दुनिया भर के सिनेमा.उद्योग की नींद उड़ा दी थी। 

भारत में तो इस व्यवसायिक पहलू का असर बाद में हुआ। सबसे पहले इसका सामना अमेरिका ने किया। दुनिया का सबसे बड़ा फ़िल्म प्रोडक्शन फॉक्स टीवी जब घनघोर घाटे में आ गया तो उसने 1977 की अपनी हिट फ़िल्म ष्स्टार वार्सष् को 1982 में होम वीडियो पर रिलीज़ किया। यह दुनिया की पहली कॉमर्शियल वीएचएस रिलीज़ थी। हालांकि इससे पहले सन 1972 में एक कोरियन फ़िल्म ष्द यंग टीचरष् को वीएचएस पर रिलीज़ किया जा चुका था। यह एक रंगीन पारिवारिक फ़िल्म थी जो एक ऐसी युवा अध्यापिका की कहानी कहती है जो स्कूल की प्रतिष्ठा और अपने आत्मविश्वास को आगे लाने के लिए संकीर्ण सोच वाले स्कूल बोर्ड और प्रिंसिपल से संघर्ष करते हए एक वॉलीबॉल मैच का आयोजन करती है। इस आयोजन के दौरान दो विद्यार्थी स्कूल से भाग जाते हैं। अध्यापिका के उदार तरीकों और खुली सोच को इस घटना का ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। फिर भी अंततः अध्यापिका मैच संपन्न कराने में सफल होती है। 

यह फ़िल्म पहली वीएचएस रिलीज़ अवश्य थी किन्तु इस प्रयोग को वह एक ट्रेंड में नहीं बदल सकी। यह बदलाव 1982 में स्टार वार्स की वीडियो रिलीज़ के बाद ही आया। बाद के दिनों में यह बदलाव इतना लोकप्रिय हुआ कि कई देशों ने तो वीसीआर द्वारा फ़िल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर बाक़ायदा रोक लगा दी थी। एक अध्ययन के अनुसार 1981 में फिलिपीन्स के मनीला में सिनेमाघरों के दर्शकों की उपस्थिति 30 प्रतिशत तक कम हो गयी थी। धीरे.धीरे यह बदलाव एक व्यावसायिक रूप लेता गया और अनेक नयी पुरानी फ़िल्में वीडियो कैसेट पर उपलब्ध होने लगीं। इन वीडियो कैसेटों के चलन ने बड़े सिनेमाघरों के बरक़्स या उनकी अनुपस्थिति में एक नए विकल्प के रूप में अपने छोटे.छोटे वीडियो हॉल विकसित करने शुरू कर दिए। ये वीडियो.हॉल उन छोटे क़स्बे में ज़्यादा लोकप्रिय होते गए जहां सिनेमाघर यानि कि सिंगल स्क्रीन थियेटर का पूरी तरह अभाव था। ऐसे वीडियो हॉल दक्षिण अफ्रीका के पिछड़े इलाकों में भी बड़ी संख्या में मौज़ूद थे। 80 के दशक के उत्तरार्द्ध और 90 के दशक के पूर्वाद्ध के भारत में भी ऐसे वीडियो हॉल अपना बाज़ार बना रहे थे। 

हमारे क़स्बे में भी तीन वीडियो.हॉल थे। अशोका वीडियोज़ए यादव वीडियोज़ और डायमंड वीडियोज़। इन तीनों वीडियो हॉल्स के साइन.बोर्ड क्रमशः नीलेए पीले और हरे रंगों से तैयार किए गए थे। क़स्बे में सामूहिक रूप से सिनेमा देखने के ये एकमात्र साधन थे। ये वीडियो हॉल उस लोकप्रिय संस्कृति का भी वाहक थे जिसके क़िस्से शहरों की हवा खा चुके स्मार्ट नौजवान और रंगीले अधेड़ सुनाया करते थे। ये क़िस्से प्रायः सिनेमा के नायकों अथवा नायिकाओं के बारे में हुआ करते थे। इस संस्कृति में क़स्बे के निकटवर्ती गांवों का बड़ा दर्शक वर्ग भी शामिल था। क़स्बे के बाज़ार में सौदा.सुलफ़ के बहाने आने वाले ग्रामीण लगे हाथ सिनेमा का एक शो भी देख जाते। 

क़स्बे में एक पेन्टर था बाबा पेन्टर। बाबा पेन्टर इन वीडियो हॉल्स के लिए फ़िल्मी पोस्टर बनाया करता था। ये पोस्टर क़स्बे के व्यस्त चौराहोंए स्कूल और अस्पताल की दीवारों और बस.स्टेंड पर सुशोभित हुआ करते थे। पोस्टर बनाने के साथ ही बाबा पेन्टर हर दिन साइकल रिक्शे पर फ़िल्म की एनाउन्समेट भी किया करता था। किसी थियेटर कलाकार के जैसी उसकी आवाज़ लाउड.स्पीकर से निकलकर पूरे क़स्बे में फैल जाती थी। एनाउन्समंेट की उसकी एक निश्चित शब्दावली थी जिसमें सिर्फ़ फ़िल्म और उसके नायकए नायिकाओं के नाम बदल जाते थे। इस शब्दावली में कुछ पारिभाषिक शब्द जैसे ईस्टमैन कलर.चित्रए माताओं और बहनों के देखने लायक रंगीन पारिवारिक चित्रए सिनेमा.स्कोप इत्यादि की स्थायी मौज़ूदगी रहती थी। छोटे क़स्बे के इन सिनेमाघरों मेें गंगासागरए संतोषी मां से लेकर गुलामीए डाकू सुल्तानाए क़यामत से क़यामत तकए जानी दुश्मन और मेरा गांव मेरा देश जैसी लगभग हर प्रकार की फ़िल्में लगा करती थीं। नयी फ़िल्में भी आती थीं लेकिन ज़रा देर से। फ़िल्म का टिकिटए हॉल का अंधेराए टॉर्च के सहारे सीट ढू़ढ़ने का तरीक़ा सब कुछ शहरी सिनेमाघरों की तरह ही था। 

इन वीडियो हॉल्स की एक नेपथ्य.कथा और थी। दिन के ये स्थिर सिनेमाघर निकटवर्ती छोटे क़स्बों और गांवों में रात के चल.सिनेमाघरों में बदल जाते थे। ऐसा शादी.ब्याह आदि के अवसरों पर होता था। गांव के किसी पक्के मकान की छत पर या खुले मैदान में एक गैस.लैंटर्न के सहारे रात भर लोग तीन या चार फ़िल्मों का आनंद लेते थे। यह अनुभव ख़ासा दिलचस्प अनुभव होता था। फ़िल्म स्क्रीनिंग के अवसरोें पर पुरुषों से अधिक संख्या महिलाओं और लड़कियों की होती थी। वे बिना किसी डर के खुले मन से फ़िल्म देख पाती थीं जो कि दिन के उजाले में वीडियो हॉल में हरगिज़ मुमकिन नहीं था। यह तब की बात है जब शादियों में वीएचएस पर वीडियो रिकॉर्डिंग का चलन आम नहीं था। शादियों के फोटो.एलबम तैयार करने का काम प्रायः पासपोर्ट साइज़ फोटो निकालने वाले फोटो.स्टूडियो के फोटोग्राफ़र ही किया करते थे। 

बाद के दिनों मंे वीडियो कैमरे और वीसीआर की कीमतों में कमी आने पर ये फोटो.स्टूडियो वीडियो.एलबम भी तैयार करने लगे। फिर धीरे.धीरे ऐसे वीडियो एलबम तैयार करने का चलन भी जाता रहा और अब हाई डिज़िटल दौर में सस्ते से सस्ते मोबाइल फ़ोन और कैमरे के ज़रिये हम मन चाही वीडियो क्लिप बनाकर उन्हें सोशल नेटवर्किंगए ऑनलाइन चैटिंग और यूट्यूब जैसी साइटों के ज़रिये चुटकियों में दुनिया के किसी भी कोने में बैठे अपने परिचितों के साथ शेयर कर सकते हैं गोया कि हमने अपनी ही ज़िदगी को एक विशाल सिनेमाघर में तब्दील कर दिया है। इस सिनेमाघर में हर क्षण चलने वाली फ़िल्मों के निर्माताए निर्देशक और अभिनेता सब कुछ हम स्वयं ही हैं। हमारी ज़िदगी से आबाद इन छोटी.छोटी फ़िल्मों में एक्शनए कॉमेडीए रोमान्सए ड्रामा सब कुछ है। पहले हम सिनेमा के बाहर खड़े थेए अब सिनेमा के भीतर चले आए हैं। 
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