28 अप्रैल 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


शहर को ढूढ़ने निकले थे स्याह रातों में 
ये किस ख़ला में चले आए बातों बातों में 

किसी नुजूमी के घर जा बुला सितारों को
नहीं हैं देख लकीरें हमारे हातों में 

लबों के सुर्ख़ समंदर में डूब जाउंगा
मैं एक दूब का तिनका फंसा हूं दांतों में

कोई अलाप उठाए तो दिल के तार बजें
उलझ रहे हैं ज़माने की वारदातों में

सफ़र तमाम करो मंज़िलों को जाने दो
बहक रहे हैं मुसाफ़िर नयी निज़ातों में

किसी का कर्ज़ बकाया चुका रहा है कोई
है दर्ज़ नाम किसी का उधारखातों में

हरेक बात है यकसां कहां जुदा हैं हम
निहां है तानें हमारी तुम्हारी नातों में

खड़े हैं दर्द की बारिश में मुंतज़िर कोई
पनाह मांगने आए हमारे छातों में

तेरी फ़तह से नहीं कम जो तू तलाश करे
मेरी शिकस्त का क़िस्सा समय की घातों में

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