28 अप्रैल 2013

ग़ज़ल / दिलीप शाक्य


दर, बदर होता है दीवार से ख़ूं रिसता है 
तेज़ रौ शहर की रफ़्तार से ख़ूं रिसता है

दैर से गिर्जे से मस्जिद से खराबात से भी
बाम से कूचे से बाज़ार से ख़ूं रिसता है 

तिश्नगी फिर मेरे होटों पे खराशें डाले
फिर मेरे दस्ते-तलबगार से खूं रिसता है

फिर उसी ज़ीने पे चढ़ आयी हैं जख़्मी रुहें
फिर उसी ख़ाब की मीनार से ख़ूं रिसता है

फिर मेरे ख़ूं से गुलाबी है तेरे हुस्न का रंग
शहरे-ख़ूबां तेरे रुख़सार से ख़ूं रिसता है

राग बंदिश में है यां अम्न का गाउं कैसे
मेरी आवाज़ के मेयार से ख़ू रिसता है

हर्फ़े-आख़िर हूं मुझे हर्फ़े-मुक़र्रर न बना
नुक़्ता-ए-दर्द के विस्तार से ख़ूं रिसता है

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